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३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ ५.१.१. उपधिग्रहण परिग्रह है-शिवभूति इस श्वेताम्बर-सिद्धान्त को नहीं मानता कि वस्त्रपात्रादि उपधि को ग्रहण करना परिग्रह नहीं है, अपितु उसमें मूर्छा करना परिग्रह है।८ वह उपधि के ग्रहण करने को भी परिग्रह मानता है और उपधि से रहित होने के कारण जिनलिंगरूप जिनकल्प को निष्परिग्रह कहता है। यथा
"यद्येवं तर्हि किमिदानीमौधिक औपग्रहिकश्चैतावानुपधिः परिगृह्यते? स एव जिनकल्पः किं न क्रियते? --- परलोकार्थिना हि स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्तव्यः, किं पुनरनेन कषायभयमूर्छादिदोषनिधिना परिग्रहानर्थेन? अत एव निष्परिग्रहत्वमुक्तम्। अचेलकाश्च जिनेन्द्राः। अतोऽचेलतैव सुन्दरेति।"( हेम. वृत्ति । विशे. भा./ गा.२५५१-५२)।
अनुवाद-"यदि ऐसा है तो आजकल इतनी औधिक और औपग्रहिक उपधि का परिग्रह क्यों किया जाता है? वही जिनकल्प क्यों नही अपनाया जाता? परलोकार्थी ( मोक्षार्थी) को वही निष्परिग्रह जिनकल्प अपनाना चाहिए। कषाय, भय, मूर्छा आदि दोषों के स्रोत इस परिग्रहरूप अनर्थ से क्या फायदा? इसीलिए श्रुत में निष्परिग्रहत्व का उपदेश दिया गया है। जिनेन्द्र भी अचेलक ही थे। अतः अचेलता ही सुन्दर है ( मोक्ष का सम्यग् मार्ग है)।"
इस कथन से स्पष्ट है कि शिवभूति वस्त्रपात्रादि उपधि के ग्रहण को भी परिग्रह मानता है, मात्र उनमें मूर्छा के सद्भाव को नहीं। उसके अनुसार वस्त्रपात्रादि परिग्रह के त्याग के बिना मूर्छा का परित्याग संभव नहीं है, क्योंकि वस्त्रपात्रादि का परिग्रह मूर्छा को जन्म देता है। वह जिनेन्द्र के समान अचेलत्व (सर्वथा वस्त्ररहित होने) को अपरिग्रह मानता है, जिसमें रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि श्वेताम्बर-मुनिलिङ्ग का भी अभाव होता है, जैसा कि प्रवचनपरीक्षाकार ने कहा है
"येन कारणेन तीर्थकृतां वस्त्राद्यनुपयोगस्तेन कारणेनार्हन् स्वलिङ्गपरलिङ्गगृहस्थलिङ्गै रहितः स्यात्। तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणादि परलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं पिच्छकादिकं, गृहस्थलिङ्गं तु प्रतीतमेव। एभिर्विप्रमुक्तस्तीर्थकृद्भवति।" (प्रव. परी./वृत्ति / १/२ / ११ / पृ. ७८)। १८.क-जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं।
तं पि संजमलज्जट्टा धारंतिपरिहरंति अ ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा॥ ६/२०॥ दशवैकालिकसूत्र। ख-"यच्च श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तं तदपि धर्मोपकरणेष्वपि मूर्छा न कर्त्तव्या। मूर्छाभाव
एव निष्परिग्रहत्वमवसेयं, न पुनः सर्वथा धर्मोपकरणस्यापि त्यागः।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यक-भाष्य / गा.२५५१-५२।
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