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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ३५ प्रतिकूल और एकमात्र जिनेन्द्रगृहीत अचेललिंग को मोक्ष का मार्ग घोषित करती हैं। यह घोषणा यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि उसमें सचेललिंग से भी मुक्ति स्वीकार की गयी है। उक्त घोषणा केवल दिगम्बरमत-सम्मत है। __ मालवणिया जी का यह कथन सत्य है कि शिवभूति का अपने गुरु से केवल वस्त्रपात्रादि-परिग्रह को लेकर विवाद होता है, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि विषयों पर नहीं। किन्तु इससे यह फलित नहीं होता कि उसे ये दोनों बातें मान्य थीं। वह अचेलत्व के पक्ष में जो तर्क देता है, उनसे उसकी सारी विचारधारा स्पष्ट हो जाती है। उसके सारे तर्क दिगम्बरमतानुगामी हैं। वह कहता है कि वस्त्रादिपरिग्रह के सद्भाव में भय, कषाय और मूर्छा की उत्पत्ति होती है (जो प्रत्येक के लिए कर्मबन्ध के कारण हैं )। अतः मोक्षार्थी को जिनेन्द्रगृहीत अचेललिंग ही धारण करना चाहिए। यह तर्क सवस्त्र अवस्था में प्रत्येक के लिए मुक्ति का द्वार बन्द कर देता है, चाहे वह समर्थ पुरुष हो अथवा असमर्थ पुरुष या स्त्री अथवा अन्यलिङ्गी। आइये शिवभूति के तर्कों पर दृष्टि डालें। शिवभूति के तर्क एवं मान्यताएँ दिगम्बरमतानुगामी ५.१. सचेललिंग का सर्वथा निषेध प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में ज्ञापित किया गया है कि श्री जिनभद्रगणी ने बोटिकमतोत्पत्ति-कथा के प्रसंग में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट मुनिधर्म के जो जिनकल्प और स्थविरकल्प भेद बतलाये हैं, उनमें जिनकल्प को भी उन्होंने स्थविरकल्प के ही समान सचेल प्ररूपित किया है। किन्तु शिवभूति के मन में जिनकल्प की जो अवधारणा है, वह जिनभद्रगणी जी की अवधारणा से एकदम विपरीत है। वह जिनेन्द्रलिंगवत् सर्वथा अचेललिंग (नाग्न्यलिंग) को जिनकल्प मानता है। मुखवस्त्रिकादि ग्रहण किये जाने को भी वह जिनकल्प के विपरीत समझता है। इस प्रकार शिवभूतिमान्य जिनकल्प सर्वथा अचेल है, और जिनभद्रगणिमान्य जिनकल्प किसी न किसी रूप में सचेल है। परिणामस्वरूप साधुओं के लिए जिनेन्द्रलिंग के समान अचेलत्व को उचित मानते हुए , शिवभूति गुरु से जिनकल्प को ही अपनाये जाने का आग्रह करता है और इसके औचित्य की सिद्धि यह कहकर करता है कि जिनेन्द्र भी अचेलक थे, अतः अचेलता ही समीचीन है। देखिये, उसके नीचे उद्धृत वचन। मोक्ष के लिए वस्त्रादि-सर्वसंग-त्यागरूप अपरिग्रह का अवलम्बन दिगम्बरों की प्रथम मान्यता है। शिवभूति निम्नलिखित तर्कों से मोक्षार्थी पुरुषों के लिए सचेललिंग को सर्वथा अग्राह्य सिद्ध करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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