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________________ ३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ और आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि आगमों को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बरपरंपरा के समान अंग-आगमों के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते थे। इस परम्परा में आगे चलकर जिन स्वतंत्र ग्रन्थों और आगमों की टीकाओं का निर्माण हुआ, उनमें अर्धमागधी आगमसाहित्य की सैकड़ों गाथाएँ और उद्धरण प्राप्त होते हैं। अतः उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं। इस निष्कर्ष की सत्यता को उनकी निम्न मान्यताओं की समरूपता में स्पष्टतः देखा जा सकता है-बोटिक और यापनीय दोनों ही मुनि के लिए उत्सर्गमार्ग की दृष्टि से अचेलता के पक्षधर हैं तथा दोनों आचारांग आदि आगमों की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं और उनके वस्त्र, पात्र सम्बन्धी उल्लेखों को आपवादिक मानते हैं। जब कि दिगम्बरपरम्परा आचारांग आदि अंग-आगमों का विच्छेद मानती है और वस्त्रधारी को किसी भी स्थिति में मुनि नहीं मानती है। पुनः यापनीय और बोटिक दोनों ने स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं किया है और साध्वी में वस्त्रग्रहण होते हुए भी महाव्रतों का सद्भाव माना तथा स्त्री की दीक्षा को स्वीकार किया। जबकि दिगम्बरपरम्परा स्त्रीदीक्षा एवं स्त्रीमुक्ति का निषेध करती है। संक्षेप में आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों को मान्य करने और स्त्रीमुक्ति का निषेध न करने से बोटिक और यापनीय एक परम्परा के सूचक हैं। अत: श्वेताम्बरसाहित्य में प्रयुक्त बोटिक शब्द यापनीयों का ही पर्यायवाची है।" (जै.ध.या.स./ पृ.९-१०)। पं० मालवणिया जी एवं डॉ० सागरमल जी का कथन है कि श्वेताम्बराचार्यों ने भ्रम से बोटिकों को दिगम्बर मान लिया है, किन्तु कथा में वर्णित तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि मुनि जी एवं इन विद्वानों ने जान-बूझकर बोटिकों को यापनीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसके पीछे एक विशिष्ट प्रयोजन था। वह यह कि बोटिकमतोत्पत्तिकथा के द्वारा प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने दिगम्बरमत की उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०९ अर्थात् ई० सन् ८२ में बतलायी है। इससे दिगम्बरमत कम से कम ईसा की प्रथम शताब्दी-जितना पुराना सिद्ध होता है। किन्तु मुनि जी और उनके अनुयायी विद्वान् उसे इतना भी प्राचीन सिद्ध नहीं होने देना चाहते थे। वे चाहते थे कि उसे विक्रम की छठी शती में कुन्दकुन्द के द्वारा प्रवर्तित सिद्ध किया जाय। इसलिए उन्होंने यह कथा गढ़ी कि बोटिककथा में प्रयुक्त 'बोटिक' शब्द 'दिगम्बर' का पर्यायवाची नहीं है, अपितु यापनीयों का नामान्तर है, अतः बोटिक शिवभूति ने दिगम्बरमत का नहीं, बल्कि यापनीयमत का प्रवर्तन किया था। _ किन्तु शिवभूति यापनीयमत का प्रवर्तक नहीं था, न ही उसने दिगम्बरमत की स्थापना की थी। उसने तो श्वेताम्बरमत छोड़कर दिगम्बरमत का वरण किया था। इस सत्य की स्थापना उसकी उन मान्यताओं से होती है, जो उसने अपने गुरु के साथ तर्क-वितर्क करते समय प्रकट की हैं। उसकी मान्यताएँ सचेललिंग को मोक्ष के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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