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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ३३ मुद्रित आवश्यकचूर्णि में जितने अंश में बोटिक की चर्चा है, उसके मार्जिन में 'दिगम्बरोत्पत्ति' छपा है। किन्तु वह सम्पादक का भ्रम है। क्योंकि चूर्णि में भी बोटिक की चर्चा में कहीं भी स्त्रीमक्ति की चर्चा को स्थान नहीं मिला है। अत एव बोटिक और दिगम्बर में भेद करना जरूरी है। यहाँ यह भी बता देना जरूरी है कि विशेषावश्यकभाष्य की गाथा २६०९ की टीका में बोटिकचर्चा का उपसंहार करते हुए स्त्रीमुक्ति की चर्चा के लिए उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन की टीका को देख लेने को कहा है। वह भी उनके मत में बोटिक और दिगम्बर को एक मानने के भ्रम के कारण है। इस समग्र चर्चा से इतना स्पष्ट है कि बोटिक दिगम्बर नहीं थे। इस समग्र चर्चा के दो फल निकलते हैं-प्रथम तो यह कि श्वेताम्बरग्रन्थों में बोटिक नाम से जिस संप्रदाय का उल्लेख हुआ है, वह दिगम्बरसंप्रदाय से भिन्न है और जिसे अन्यत्र यापनीय नाम से जाना जाता है। दूसरे, दिगम्बरसंप्रदाय, जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करता है, उससे प्रारंभिक श्वेताम्बर आचार्य परिचित नहीं थे।" (जै.ध.या.स./ पृ.८-९)। डॉक्टर सा० ने आगे लिखा है-"बोटिकों की उत्पत्तिकथा से भी यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया था। शिवभूति द्वारा अपनी बहन उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं। इस सम्प्रदाय के तत्कालीन परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे यही फलित होता है कि इनका मुख्य विवाद मुनि के सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध में था। स्त्रीमुक्ति और केवली-कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद नहीं था अथवा यह कहें कि यह प्रश्न उस समय उत्पन्न ही नहीं हुआ था। विशेषावश्यकभाष्य (गा.३०४५ ) में इन्हें आचारांग आदि आगमों को स्वीकार करने वाला माना गया है। अतः बोटिक दिगम्बरपरम्परा के समान न तो स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का पूर्णतः विच्छेद ही स्वीकार करते थे। मात्र यह कहते थे कि आगमों में जो वस्त्र-पात्र के उल्लेख हैं, वे आपवादिक स्थिति के हैं। इस प्रकार बोटिक स्त्रीमुक्ति और केवली-कवलाहार का निषेध करनेवाले और आचारांग आदि आगमों को विच्छिन्न माननेवाले दिगम्बरसम्प्रदाय से भिन्न थे।"( जै.ध.या.स/पृ.९)। डॉक्टर सा० अपने वक्तव्य में आगे कहते हैं-"यदि हम बोटिकों की इन मान्यताओं की तुलना यापनीय-परम्परा से करते हैं, तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। यापनीयों का जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्टरूप से यही निष्कर्ष निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे, किन्तु दूसरी ओर वे स्त्रीमुक्ति, अन्य तैर्थिकों (दूसरी धर्म परंपरा)की मुक्ति, केवली-कवलाहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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