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________________ ३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ४ श्वेताम्बर शिवभूति द्वारा दिगम्बरमत का वरण उपर्युक्त कल्पित कथा में मुनि कल्याणविजय जी ने बोटिक शिवभूति को यापनीयमत-प्रवर्तक और आचार्य कुन्दकुन्द को शुरू में यापनीय संघ में दीक्षित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया एवं डॉ० सागरमल जी ने भी मुनि जी का अनुसरण किया है। बोटिकों को यापनीय सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों द्वारा उन्हें दिगम्बर कहे जाने को गलत बतलाया है और दिगम्बरमत का प्रवर्तक कुन्दकुन्द को घोषित किया है। माननीय मालवणिया जी लिखते हैं- "बोटिक मूलत: दिगम्बर नहीं थे, क्योंकि स्त्रीमुक्ति के निषेध की चर्चा हमें सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द में मिलती है । "१६ अ०२ / प्र० २ मालवणिया जी ने उमास्वाति का समय तीसरी-चौथी शताब्दी ई० माना है और वे मानते हैं कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में 'तत्त्वार्थसूत्र' की अपेक्षा जैनदर्शन का रूप विकसित है, अतः वे उमास्वाति के बाद अर्थात् ईसा की तीसरी चौथी शती के पश्चात् हुए हैं। १७ इस प्रकार माननीय मालवणिया जी भी यह मानते हैं कि दिगम्बरमत की स्थापना आचार्य कुन्दकुन्द ने ईसा की पाँचवी शताब्दी में की थी । डॉ॰ सागरमल जी लिखते हैं- " ई० सन् की पाँचवीं - छठीं शताब्दी तक जैनपरम्परा में कहीं भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था । स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ ( सवस्त्र) की मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सुत्तपाहुड' में किया है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३९४)। डॉक्टर सा० ने बोटिकों को दिगम्बरों से भिन्न बतलाते हुए लिखा है - " श्वेताम्बर आचार्यों ने बोटिकों को जो दिगम्बर मान लिया है, वह एक भ्रान्ति है । श्वेताम्बरसाहित्य में उल्लिखित 'बोटिक' दिगम्बर नहीं हैं, इस तथ्य को पं० दलसुख भाई मालवणिया ने अपने एक लेख 'क्या बोटिक दिगम्बर हैं?' में बहुत ही स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादित किया है। उनका यह लेख Aspects of Jainology, Vol.II, पं० बेचरदास दोशी स्मृतिग्रंथ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम से ही प्रकाशित हुआ है। वे लिखते हैं- "विशेषावश्यक की विस्तृत चर्चा में विवाद के विषय वस्त्रपात्र हैं, इसमें स्त्रीमुक्तिनिषेध की चर्चा नहीं है । दिगम्बरसंप्रदाय में वस्त्र और पात्र के अलावा स्त्रीमुक्ति का भी निषेध है। अत एव जिनभद्र के समय में बोटिक को दिगम्बरसंप्रदाय के अन्तर्गत नहीं किया जा सकता। Jain Education International १६. जैन विद्या के आयाम / ग्रन्थाङ्क २ ( Aspects of Jainlogy, Vol.II) / पं. बेचरदास स्मृति - ग्रन्थ / पृ. ७३ / १७. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति / प्रस्तावना / पृ. १०३ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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