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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ३१ जाते थे और विक्रम की नवीं सदी के अकलंकदेव, विद्यानन्दी आदि दिग्गज दिगम्बर विद्वानों के द्वारा तार्किक पद्धति से परिमार्जित होने के उपरान्त तो वे और भी आकर्षक हो गये। फलस्वरूप प्राचीन सिद्धान्तों का लोप और इन नये ग्रन्थों का सार्वत्रिक प्रसार हो गया।
"इस प्रकार आधुनिक दिगम्बर सम्प्रदाय और इसके श्वेताम्बर-विरोधी सिद्धान्तों की नींव विक्रम की छठी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द ने डाली।" (अ.भ.म.! पृ.३२७-३२८)।
मुनि कल्याणविजय जी ने पादटिप्पणी में लिखा है-"कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपनी गुरुपरम्परा का ही नहीं, अपने गुरु का भी नामोल्लेख नहीं किया। इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्द के क्रियोद्धार में उनके गुरु भी शामिल नहीं हुए होंगे और इसी कारण से उन्होंने शिथिलाचारी समझकर अपने गुरु-प्रगुरुओं का नाम-निर्देश नहीं किया होगा।" (श्र.भ.म./ पा.टि.१/ पृ.३२७)।
मुनिश्री कल्याणविजय जी के ऊपर उद्धृत निम्नलिखित शब्दों पर ध्यान दिया
जाय
"छठी सदी के विद्वान् आचार्य कुन्दकुन्द, देवनन्दी वगैरह ने प्राचीन परम्परा से मजबूत मोरचा लिया। पहले जो सूत्र, नियुक्ति आदि प्राचीन आगमों को इनके पूर्वाचार्य मानते आये थे, इन्होंने उनका मानना भी अस्वीकार कर दिया--- ।" (अ.भ.म/ पृ.३०२-३०३)।
"दिगम्बर शिवभूति ने जो सम्प्रदाय चलाया था, वह दक्षिण में जाकर 'यापनीयसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया था।--- विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग उसके साधुओं में कुछ चैत्यवास का असर हो गया था और वे राजा वगैरह की तरफ से भूमिदान वगैरह लेने लग गये थे। अर्वाचीन कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता अच्छी नहीं लगी। उन्होंने केवल स्थूल परिग्रह का ही नहीं, बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो आपवादिक लिंग के नाम से वस्त्रपात्र की छूट थी, उसका भी विरोध किया---।" (अ.भ.म./ पृ.३२७)।
"--- कुन्दकुन्द के क्रियोद्धार में उनके गुरु भी शामिल नहीं हुए होंगे और इसी कारण से उन्होंने शिथिलाचारी समझ कर अपने गुरु-प्रगुरुओं का नाम-निर्देश नहीं किया होगा।" (अ.भ.म./ पा.टि.१/ पृ. ३२७)
इन शब्दों से मुनि कल्याणविजय जी ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कुन्दकुन्द, पूज्यपाद देवनन्दी आदि दिगम्बराचार्य आरंभ में यापनीय-सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे और उनके गुरु-प्रगुरु यापनीय आचार्य थे।
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