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३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ "इन नये सिद्धान्तों की योजना से उन्हें अपनी परम्परागत आपवादिक लिङ्गप्रवृत्ति को स्वयं उठा देना पड़ा, क्योंकि ऐसा किये बिना वे विरोधिपक्ष का सामना कर नहीं सकते थे।
"कुन्दकुन्दाचार्य आदि के इन नये सिद्धान्तों से इस परम्परा को कुछ लाभ हुआ और कुछ हानि भी।
"लाभ यह हुआ कि ऐसी ऐकान्तिक अचेलकवृत्ति से दक्षिण देश में, जहाँ पहले से ही आजीविक आदि नग्न सम्प्रदायवालों का मान और प्रचार था, इनके अनुयायी गृहस्थों की संख्या काफी बढ़ गई और इस कारण साधुसमुदाय में भी वृद्धि हुई।
"हानि यह हुई कि इनके नये सिद्धान्तों को इस परम्परा के सभी अनुयायियों ने स्वीकार नहीं किया और परिणामस्वरूप यह परम्परा जो पहले केवल 'मूलसंघ' के नाम से पहचानी जाती थी, अब से अनेक भागों में बँट गई और उसके अनेक संघ बन गये, जो ‘यापनीय संघ,' 'काष्ठासंघ', 'माथुरसंघ' वगैरह नामों से प्रसिद्ध हुए और एक दूसरे को भला बुरा कहने लगे।" (अ.भ.म/ पृ.३०१-३०७)।
मुनिजी आगे लिखते हैं- "दिगम्बर शिवभूति ने जो सम्प्रदाय चलाया था, वह दक्षिण में जाकर 'यापनीयसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। यद्यपि कर्नाटक देश में इसका पर्याप्त मान और प्रचार था, तथापि विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग उसके साधुओं में कुछ चैत्यवास का असर हो गया था और वे राजा वगैरह की तरफ से भूमिदान वगैरह लेने लग गये थे। अर्वाचीन कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता अच्छी नहीं लगी। उन्होंने केवल स्थूल परिग्रह का ही नहीं, बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो आपवादिक लिंग के नाम से वस्त्रपात्र की छूट थी, उसका भी विरोध किया और तब तक प्रमाण माने जानेवाले श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों को भी इन उद्धारकों ने अप्रामाणिक ठहराया और उन्हीं आगमों के आधार पर अपनी तात्कालिक मान्यता के अनुसार नये धार्मिक ग्रन्थों का निर्माण करना शुरू किया। कुन्दकुन्द वगैरह जो प्राकृत के विद्वान् थे, उन्होंने प्राकृत में और देवनन्दी आदि संस्कृत के विद्वानों ने संस्कृत के ग्रन्थ निर्माण कर अपनी परम्परा को परापेक्षता से मुक्त करने का उद्योग किया।
"यद्यपि शुरू ही शुरू में उन्हें पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई। यापनीयसंघ का अधिक भाग इनके क्रियोद्धार में शामिल ही नहीं हुआ और शामिल होनेवालों में से भी बहुत सा भाग इनकी सैद्धान्तिक क्रान्ति के कारण विरुद्ध हो गया तथा धीरेधीरे दिगम्बरसंघ, द्राविड़संघ आदि कई भागों में टूट गया था, तथापि इनका उद्योग निष्फल नहीं गया। इनके ग्रन्थ और विचार धीरे-धीरे विद्वानों के हृदय में घर करते
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