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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / २९ "प्राचीन स्थविर परम्परा में प्रतिदिन शैथिल्य के भाव बढ़ रहे थे। बस्ती में रहना तो उन्होंने पहले ही शुरू कर लिया था, अब धीरे-धीरे उनमें चारित्रमार्ग की अन्य शिथिलताएँ भी प्रवेश कर रही थीं। यद्यपि सुविहित गीतार्थ व्यवस्था बनाये रखने के लिये बहुत कुछ प्रयत्न कर रहे थे, शिथिलाचारियों का 'पासत्था' आदि नामों से परिचय दे उनके चेप से बचने के लिये वे साधुओं को उपदेश दे रहे थे, फिर भी निम्नगामी शैथिल्य-प्रवाह रोका नहीं जा सका। विक्रम की पाँचवीं और छठी सदी तक 'पासत्था' आदि नामों से पहचाने जानेवाले शिथिलाचारियों के गाँव-गाँव में अड्डे जमने लगे और उग्रविहारी सुविहितों की संख्या कम होने लगी। इस स्थिति से नवीन स्थविर (दिगम्बर) परम्परा ने पर्याप्त लाभ उठाया। परिमित वस्त्र-पात्र की छूट के कारण उनके यहाँ साधुओं की संख्या खूब बढ़ती गई और प्राचीनकालीन नग्नतादि उत्कृष्ट क्रियाओं के कारण गृहस्थवर्ग भी प्रतिदिन उनकी तरफ झुकता गया। परिणाम यह हुआ कि विक्रम की पाँचवीं सदी के आसपास जाकर इस परम्परा ने अपना स्वतन्त्र संघ स्थापित कर दिया और प्राचीन स्थविर परम्परा के पूर्व नाम 'मूलसंघ' को अपने लिये व्यवहृत किया।
"यद्यपि यह नया 'मूलसंघ' तब तक उन्हीं जैन आगमों से अपना काम चलाता था, तथापि महावीर का गर्भापहार, उनका विवाह आदि अनेक बातें वह नहीं भी मानता था और इस कारण वह धीरे-धीरे अपना नया साहित्य-निर्माण किये जाता था।
"प्राचीन स्थविरपरम्परा के अधिक साधुओं के शिथिल और नित्यवासी हो जाने पर भी उसमें त्यागी सुविहित श्रुतधरों की भी कमी न थी। नवीन परम्परा की उत्कृष्टता अथवा उन्नति के कारण नहीं, पर उसके नये विचार और कतिपय सिद्धान्तभेद के कारण उन्होंने इसका फिर प्रतिवाद करना शुरू किया और परिणामस्वरूप दोनों परम्परावालों में तनातनी बढ़ने लगी। छठी सदी के विद्वान् आचार्य कुन्दकुन्द, देवनन्दी वगैरह ने प्राचीन परम्परा से मजबूत मोरचा लिया। पहले जो सूत्र, नियुक्ति आदि प्राचीन आगमों को इनके पूर्वाचार्य मानते आये थे, इन्होंने उनका मानना भी अस्वीकार कर दिया और अपने लिये आचार, विचार और दर्शनविषयक स्वतन्त्र साहित्य की रचना की, जिसमें वस्त्र-पात्र रखने का एकान्तरूप से निषेध किया। यद्यपि इस ऐकान्तिक निषेध के कारण उन्हें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का भी निषेध करना पड़ा, क्योंकि स्त्रियों को सर्वथा अचेलक मानना अनुचित था और वस्त्रसहित रहते हुए उनकी मुक्ति मान लेने पर अपने वस्त्रधारी प्रतिस्पर्धियों की मुक्ति का निषेध करना असंभव था। इसी तरह केवली का कवलाहार मानने पर उसके लाने के लिये पात्र भी मानना पड़ता और इस दशा में पात्रधारी स्थविरों का खंडन नहीं करने पाते।
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