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________________ २८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ ___ आवश्यकमूलभाष्य की पूर्वोद्धृत गाथाओं से बोटिक शब्द का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है। १४८ वी गाथा में कहा गया है कि बोटिक शिवभूति से बोटिकलिंग की उत्पत्ति हुई। इससे प्रकट होता है कि 'बोटिक' शब्द शिवभूति के गोत्र अथवा उसके साथ जुड़ी किसी उपाधि का वाचक है। यह भी हो सकता है कि वह उसके आधी-आधी रात तक स्वच्छन्द भ्रमण करने वाले चरित्र का सूचक कोई लोकप्रचलित शब्द हो। उस बोटिक शिवभूति के द्वारा प्रचलित किये जाने के कारण यह मत बोटिकमत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुनि कल्याणविजय जी के मनगढन्त निष्कर्ष इस कथा की समीक्षा करते हुए मुनि श्री कल्याणविजय जी लिखते हैं-"शिवभूति ने आर्यकृष्ण से उपधि न रखने के सम्बन्ध में जो दलीलें की हैं, उनका सार इतना ही है कि 'उपधि' कषाय, मूर्छा और भय इत्यादि का कारण है। उन्होंने यह नहीं कहा कि उपधि रखने से मुक्ति ही नहीं होती।---यद्यपि शिवभूति ने वस्त्रपात्र न रखने का उत्कृष्ट जिनकल्प स्वीकारा था, आगे जाकर उन्हें अनुभव हुआ कि इस प्रकार का उत्कृष्टमार्ग अधिक समय तक चलना कठिन है। अत एव उन्होंने साधुओं का आपवादिक लिंग भी स्वीकार किया। (श्र.भ.म. / पृ.२९६)। "एक व्यक्ति कैसा भी आचरण कर सकता है, पर वैसा ही आचरण करनेवालों की परम्परा जारी रखना सरल नहीं। ---परिणामस्वरूप अपने मार्ग को उन्होंने आचाराङ्गोक्त मूल स्थविरमार्ग में परिगणित किया और जो इस उत्सर्गमार्ग को न पाल सकें, उनके लिये उसी सूत्र के अनुसार कुछ वस्त्र-पात्र रखने की व्यवस्थावाला अपवादमार्ग भी नियत किया। "यद्यपि शिवभूति के सम्प्रदाय का उद्भव उत्तरापथ में हुआ था, पर वहाँ उसका अधिक प्रचार नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है। प्राचीन स्थविरसंघ का उन दिनों वहाँ पूर्ण प्राबल्य फैला हुआ था और मथुरा के आसपास के ९६ गाँवों में तो जैनधर्म राजधर्म के रूप में माना जाता था। इस स्थिति में शिवभूति या उनके अनुयायियों का वहाँ टिकना बहुत कठिन था। इस कठिनाई के कारण उस सम्प्रदाय ने उधर से हटकर दक्षिणापथ की तरफ प्रयाण किया, जहाँ आजीविक-संप्रदाय के प्रचार के कारण पहले ही नग्न साधुओं की तरफ जन-साधारण का सद्भाव था। वहाँ जाने पर इस सम्प्रदाय की भी अच्छी कदर हुई और धीरे-धीरे वह पगभर हो गया। यद्यपि इस सम्प्रदायवालों ने अपने संप्रदाय का नाम 'मूलसंघ' रक्खा था, पर दक्षिण में जाने के बाद वे 'यापनीय' और 'खमण' इन नामों से अधिक प्रसिद्ध हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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