SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / २७ "जिनकल्पिक साधुओं का यह वर्णन सुनकर शिवभूति ने कहा-"यदि ऐसा है, तो इतनी औधिक और औपग्रहिक उपधि का परिग्रह क्यों किया जाता है? उसी जिनकल्प को अंगीकार क्यों नहीं किया जाता?" "तब गुरु ने कहा-"जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जिनकल्प का विच्छेद हो चुका है। संहनन आदि के अभाव में अब उसका आचरण संभव नहीं है।" ___ "शिवभूति बोला-"मेरे रहते उसका विच्छेद कैसे हो सकता है? मैं उसे धारण करूँगा। परलोकार्थी (मोक्षार्थी) को वही निष्परिग्रह जिनकल्प धारण करना चाहिए। यह परिग्रह तो कषाय, भय, मूर्छा आदि : दोषों का कारण है, अतः अनर्थरूप है। इसीलिए श्रुत में निष्परिग्रहत्व का उपदेश दिया गया है। जिनेन्द्र भी अचेलक थे, अतः अचेलता ही सुन्दर है (मोक्ष का प्रामाणिक, सम्यक् मार्ग है)।" "तब गुरु ने कहा-"यदि ऐसा है, तो शरीर को भी व्रतग्रहण के अनन्तर ही छोड़ देना जरूरी हो जायेगा, क्योंकि उसके होने पर भी किसी में कषाय, भय, मूर्छा आदि दोष उत्पन्न हो सकते हैं। और श्रुत में जो निष्परिग्रहत्व का उपदेश है, उसका तो यह अर्थ है कि धर्मोपकरणों में भी मूर्छा नहीं करनी चाहिए। मूर्छा का अभाव ही निष्परिग्रहत्व है, न कि धर्मोपकरणों का भी सर्वथा त्याग। और जिनेन्द्र भी सर्वथा अचेलक नहीं थे, क्योंकि आगम में कहा गया है कि सभी चौबीस तीर्थंकर एक वस्त्र लेकर प्रव्रजित हुए थे।" ___ "इस प्रकार गुरु तथा स्थविरों के द्वारा समझाये जाने पर भी कषाय-मोहादिकर्मों के उदय से शिवभूति ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और वस्त्र त्याग कर निकल गया। जब वह बाहर उद्यान में बैठा था, तब उसकी बहन उत्तरा वन्दना करने के लिये आयी और अपने भाई को निर्वस्त्र देखकर उसने भी वस्त्र त्याग दिये। पश्चात् भिक्षा के लिये नगर में गयी, तो उस पर एक गणिका की नजर पड़ी। गणिका ने सोचा कि निर्वस्त्र अवस्था में यह बीभत्स लगती है। स्त्रियों की इस बीभत्सता को देखकर कहीं लोग हमसे विरक्त न हो जायँ, यह सोचकर उत्तरा के न चाहते हुए भी गणिका ने उसे वस्त्र पहना दिये। उत्तरा ने यह घटना शिवभूति को बतलाई। तब शिवभूति ने सोचा कि नग्न स्त्री अत्यन्त बीभत्स एवं लज्जास्पद लगती है, अतः उसने अपनी बहिन से कहा-"तुम ऐसी ही रहो, इस वस्त्र का परित्याग मत करो। यह वस्त्र तुम्हें देवता ने प्रदान किया है।" तत्पश्चात् शिवभूति ने कौण्डिन्य और कोट्टवीर नाम के दो शिष्यों को दीक्षित किया। इन शिष्यों से बोटिक शिवभूति की गुरु-शिष्य-परम्परा का उद्भव हुआ, जिससे बोटिकमत की उत्पत्ति हुई।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy