________________
२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ द्वार खुला हुआ देखा। वहाँ साधु कालग्रहण१५ कर रहे थे। उनके पास जाकर उसने वन्दना की और दीक्षा देने की प्रार्थना की। साधुओं ने सोचा कि यह राजा का प्रिय है और माता से कलह करके आया है, अतः उसे दीक्षा नहीं दी। तब 'खेलमल्लक' नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर उसने स्वयं केशलोच कर लिया। तब साधुओं ने भी उसे मुनिलिंग प्रदान कर दिया। फिर वे सभी साधु वहाँ से विहार कर गये। कुछ समय बाद पुनः उसी नगर में आये। तब राजा ने शिवभूति को एक बहुमूल्य कम्बलरत्न भेंट किया। आचार्य ने शिवभूति से कहा-"तुमने इसे क्यों लिया। मार्ग आदि में इससे अनेक तरहकी विपत्तियाँ आ सकती हैं।" शिवभूति ने मूर्छा के वशीभूत हो उसे गुरु से छिपाकर रख दिया। वह गोचरचर्या से आकर प्रतिदिन उसे सँभालता था और उसका कहीं भी उपयोग नहीं करता था। तब आचार्य ने सोचा-यह इसमें मूर्छित हो गया है, अतः दूसरे दिन जब वह बाहर गया था, तब उन्होंने उससे बिना पूछे ही उस कम्बलरत्न को फाड़कर साधुओं के लिए पाँवपौंछने बना दिये। जब शिवभूति को यह पता चला तो वह क्रुद्ध हो गया। एक दिन आचार्य जिनकल्पिक साधुओं का वर्णन कर रहे थे, यथा
"जिनकल्पिक दो प्रकार के होते हैं : पाणिपात्र और प्रतिग्रहधर (पात्रधारी)। इनमें से प्रत्येक के सप्रावरण और अप्रावरण ये दो भेद हैं। _ "जिनकल्प में उपधि के दो, तीन, चार, पाँच, नौ, दस, ग्यारह, और बारह, ये आठ विकल्प होते हैं।"
__ "अर्थात् किन्हीं जिनकल्पिकों के रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो ही उपधियाँ होती है, किन्हीं के एक कल्प (प्रावरण-चादर या कम्बल) को मिलाकर तीन, किन्हीं के दो कल्पों को मिलाकर चार, किन्हीं के तीन कल्पों को मिलकार पाँच उपधियाँ होती हैं, और किन्हीं के मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण तथा___ "पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्र-केसरिका (पात्रप्रमार्जनिका) पटल, रजस्त्राण और गुच्छक, यह सप्तविध पात्रनिर्योग,
"इस प्रकार नौ उपधियाँ होती हैं। इनके साथ एक कल्प को मिलाकर किन्हीं के पास दस, दो कल्पों को मिलाकर किन्हीं के पास ग्यारह और तीन कल्पों को मिलाकर किन्हीं जिनकल्पिकों के पास बारह उपधियाँ होती हैं।"
१५. "कालग्रहण = सत्र/शास्त्र का नया पाठ ग्रहण करने के पूर्व वातावरण, वसति (उपाश्रय)
एवं मन की शद्धि के निमित्त किया जानेवाला अनुष्ठान। --- शास्त्राभ्यास के लिए दिन में चार बार कालग्रहण करने का विधान है।" (खरतरगच्छालंकार-श्री जिनप्रभसूरिकृत 'विधिमार्गप्रपा'/ अनुवाद : साध्वी सौम्यगुणाश्री/ परिशिष्ट ३/ पृ. २१)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org