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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / २५ स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्तव्यः, किं पुनरनेन कषाय-भय-मूर्छादिदोषनिधिना परिग्रहानर्थेन? अत एव श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तम्। अचेलकाश्च जिनेन्द्राः, अतोऽचेलतैव सुन्दरेति।' ततो गुरुणा प्रोक्तम्-'हन्त! यद्येवम् तर्हि देहेऽपि कषाय-भय-मूर्छादयो दोषाः कस्यापि सम्भवन्तीति सोऽपि व्रतग्रहणानन्तरमेव त्यक्तव्यः प्राप्नोति। यच्च श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तं तदपि धर्मोपकरणेष्वपि मूर्छा न कर्तव्या, मूर्छाभाव एव निष्परिग्रहत्वमवसेयम्, न पुनः सर्वथा धर्मोपकरणस्यापि त्यागः। जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलकाः 'सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं' इत्यादिवचनात्। तदेवं गुरुणा स्थविरैश्च यथोक्ताभिर्वक्ष्यमाणाभिश्च युक्तिभिः प्रज्ञाप्यमानोऽपि तथाविधकषायमोहादिकर्मोदयाद् न स्वाग्रहाद् निवृत्तोऽसौ, किन्तु चीवराणि परित्यज्य निर्गतः। ततश्च बहिरुद्याने व्यवस्थितस्यास्योत्तरा नाम भगिनी वन्दनार्थं गता। सा च त्यक्तचीवरं तं भ्रातरमालोक्य स्वयमपि चीवराणि त्यक्तवती। ततो भिक्षार्थं नगरमध्ये प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। तत इत्थं विवस्त्रां बीभत्सामिमां दृष्ट्वा 'मा लोकोऽस्मासु विराङ्क्षीत्' इत्यनिच्छिन्त्यपि तया वस्त्रं परिधापिताऽसौ तत एष व्यतिकरोऽनया शिव-भूतेर्निवेदितः। ततोऽनेन 'विवस्त्रा योषिद् नितरां बीभत्साऽतिलज्जनीया च भवति' इति विचिन्त्य प्रोक्ताऽसौ-'तिष्ठत्वित्थमपि, न त्यक्तव्यं त्वयैतद् वस्त्रम्। देवतया हि तवेदं प्रदत्तमित्ति।' ततः शिवभूतिना कौण्डिन्य-कोट्टवीरनामानौ द्वौ शिष्यौ दीक्षितौ---। "तस्मात् कौण्डिन्य-कोट्टवीरात् परम्परास्पर्शमाचार्य-शिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना सञ्जाता 'बोटिकदृष्टिः' इत्यध्याहारः। इत्येवं बोटिकाः समुत्पन्नाः।" (हेम. वृत्ति / विशे.भा./ गा. २५५१-५२)। अनुवाद "रथवीरपुर नाम का नगर था। उसके बाहर दीपक नाम का उद्यान था। उसमें आर्यकृष्ण नाम के आचार्य आये हुए थे। उस नगर में सहस्रमल्ल शिवभूति नाम का राजसेवक रहता था। वह राजा का कृपापात्र था, इसलिए मौजमस्ती करते हुए नगर में घूमता रहता था। आधी रात को घर आता था। इससे उसकी पत्नी बड़ी दुखी थी। एक बार वह अपनी सास से बोली-"आपके पुत्र से मैं परेशान हो गई हूँ। वे रात में कभी भी समय पर घर नहीं आते। मैं भूखी-प्यासी जागती बैठी रहती हूँ।" सास ने कहा-"बेटी, यदि ऐसा है तो तुम आज सो जाओ, मैं स्वयं जागूंगी।" बहू ने वैसा ही किया। जब सास जाग रही थी, तब आधी रात को शिवभूति आकर बोला-"दरवाजा खोलो।" क्रुद्ध माँ ने जबाब दिया-"दुष्ट, इस समय जहाँ दरवाजा खुला हो वहाँ चला जा। तेरे पीछे यहाँ कोई प्राण नहीं दे देगा।" तब क्रोध और अभिमान से प्रेरित होकर वह चला गया। एक जगह उसने साधुओं के उपाश्रय का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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