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________________ अन्तस्तत्त्व [उन्नीस] ४५३ ४५३ ४५७ ४५९ ४६१ ४६२ ४६५ ४७० ४७० ४७४ ४८० ४८१ बृहत्कथाकोश का भद्रबाहुकथानक (ई० ९३१) - अर्धफालकसंघ एवं काम्बलतीर्थ ७. देवसेनकृत 'भावसंग्रह' (प्राकृत) की भद्रबाहुकथा (९३३-९५५ ई०) ८. रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित (१६ वीं शती ई०) ९. विसंगतियाँ १०. विश्वसनीय अंश ११. श्वेताम्बरसाहित्य में भद्रबाहु-विवाद-कथा द्वितीय प्रकरण-डॉ० सागरमल जी का अन्तिम मत इतिहास-सम्मत १. अनेक दिशाओं में भटकी विचारयात्रा २. आज का दिगम्बरसंघ भद्रबाहु-नीत अचेल निर्ग्रन्थसंघ का ही प्रतिनिधि तृतीय प्रकरण-श्वेताम्बरसाहित्य का विकास - निर्णीतार्थ सप्तम अध्याय यापनीयसंघ का इतिहास प्रथम प्रकरण-यापनीयसंघ का स्वरूप १. सिद्धान्त और आचार - अचेलकता-सचेलकता दोनों के पक्षधर २. बोटिक शिवभूति यापनीयमत का प्रवर्तक नहीं ३. श्वेताम्बरसंघ से यापनीयसंघ की उत्पत्ति ४. उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा काल्पनिक ५. दिगम्बरसंघ से यापनीयसंघ की उत्पत्ति नहीं - आचार्य हस्तीमल जी के मत की असमीचीनता ६. सिद्धान्तविपरीत वेशग्रहण का प्रयोजन ६.१. श्वेताम्बर-दिगम्बरों में सैद्धान्तिक मेल कराना ६.२. सैद्धान्तिक मेल की कल्पना अयुक्तिसंगत ६.३. लोकमान्यता-राजमान्यता की प्राप्ति ४८५ ४८५ ४८८ ४८८ ४८९ ४९१ ४९२ ४९२ ४९३ ४९४ ४९४ ४९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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