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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / २३ के मत, लिंग और चर्या से भिन्न हैं, इसलिए बोटिक मिथ्यादृष्टि माने गये हैं-"भिन्नमयलिंगचरिया मिच्छद्दिट्ठि त्ति बोडियाऽभिमया।" (विशे.भा./गा.२६२०)। इससे सूचित होता है कि शिवभूति नग्न तो हो गया था, किन्तु वह मुखवस्त्रिका और रजोहरण से युक्त नहीं था, जो श्वेताम्बर जिनकल्पी साधु के न्यूनतम आवश्यक उपकरण हैं।१३ इसलिए उसका लिंग श्वेताम्बरागम-कथित जिनकल्पी-साधुसदृश नहीं था। वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती ई०) ने भी कहा है कि बोटिक तो द्रव्यलिंग की अपेक्षा भी (श्वेताम्बर जिनकल्पियों और स्थविरकल्पियों से) भिन्न हैं।१४ यहाँ स्मरणीय है कि यापनीयों का मत श्वेताम्बरों के मत से भिन्न नहीं था तथा यापनीय-स्थविरकल्पी (सवस्त्र) साधुओं का लिंग और चर्या भी श्वेताम्बर साधुओं के लिंग और चर्या से समानता रखते थे। मात्र दिगम्बरसाधु ही इन तीनों बातों में श्वेताम्बर साधुओं से भिन्न होते हैं। अतः जिनभद्रगणी ने शिवभूति को दिगम्बरमत का ही प्रवर्तक कहा है। कल्पसूत्र के व्याख्याकार समयसुन्दरगणी (१७ वीं शती ई०) ने भी बोटिकमत का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि वीर निर्वाण संवत् ६०९ में बोटिकमत अर्थात् दिगम्बरमत उत्पन्न हुआ था-"वीरात् सं० ६०९ वर्षे बोटकमतं जातं, दिगम्बरमत इत्यर्थः।" (कल्पलताव्याख्या / कल्पसूत्र / अष्टम व्याख्यान / पृ.२३५)।। दिगम्बरमत के प्रवर्तक एवं प्रवृत्तिकाल के विषय में श्वेताम्बराचार्यों द्वारा की गई यह सबसे पुरानी कल्पना है। बोटिकमतोत्पत्ति कथा का विस्तार से वर्णन विशेषावश्यकभाष्य (गा. २५५१-२५५२) की वृत्ति में श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने बोटिकमतोत्पत्ति-कथा का संस्कृत में विस्तार से वर्णन किया है, जो इस प्रकार है __ "रथवीरपुरं नाम नगरम्। तद्वहिश्च दीपकाभिधानमुद्यानम्। तत्र चार्यकृष्णनामानः सूरयः समागताः तस्मिश्च नगरे सहस्रमल्लः शिवभूति म राजसेवकः समस्ति। स च राजप्रसादाद् विलासान् कुर्वन् नगरमध्ये पर्यटति। रात्रेश्च प्रहरद्वयेऽतिक्रान्ते गृहमागच्छति। १३. "केषाञ्चिज्जिनकल्पानां रजोहरणं मुखवस्त्रिका चेति द्विविध उपधिः। अन्येषां तु कल्पेन सह त्रिविधः, कल्पद्वयेन तु सह चतुर्विधः, कल्पत्रयेण सह पञ्चविधः---" हेम.वृत्ति । विशेषावश्यकभाष्य /गा. २५५१-५२। १४. “अष्टमं नगरं द्रव्यलिङ्गमात्रेणापि भिन्नानां सर्वापलापिनां महामिथ्यादृशां वक्ष्यमाणानां बोटिकनिह्नवानां लाघवार्थमुत्पत्तिस्थानमुक्तम्।" हेम. वृत्ति / विशेषा.भा./ गा.२३०३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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