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________________ २२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ अनुवाद-"भगवान् महावीर के मुक्ति को प्राप्त होने के ६०९ वर्ष बाद 'रहवीरपुर' नामक नगर में बोटिकमत की उत्पत्ति हुई। (१४५)। रहवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में गुरु आर्यकृष्ण से शिवभूति ने उपधि (परिग्रह) के विषय में प्रश्न किया था। गुरु ने उसका उत्तर भी दिया था। (१४६)। फिर भी बोटिक शिवभूति और उसकी बहिन उत्तरा के द्वारा स्वबुद्धि से यह मिथ्यादर्शन रहवीरपुर में प्रचलित किया गया। (१४७)। बोटिक शिवभूति से बोटिकलिंग की उत्पत्ति हुई और कौण्डिन्य तथा कोट्टवीर नामक शिष्यों की परम्परा से उसका विकास हुआ।" (१४८)। __ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बर साधु के लिए 'बोटिक' शब्द का प्रयोग हुआ है, यथा-'क्षपणको बोटिको।११ 'क्षपणको दिगम्बरः।१२ इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त गाथाओं में दिगम्बरमत की ही उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। छठी-सातवीं शताब्दी ई० के श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी आवश्यक-मूलभाष्य की उपर्युक्त गाथाएँ 'विशेषावश्यकभाष्य' (गा.२५५०-५२) में समाविष्ट कर बोटिक शिवभूति को बोटिकमत का प्रवर्तक कहा है। और बोटिकमत से उनका आशय दिगम्बरमत से है, क्योंकि उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि जिनकल्प ग्रहण करने के लिए उद्यत शिवभूति ने गुरु के द्वारा बहुत समझाये जाने पर भी मिथ्यात्व के वशीभूत हो जिनमत में अश्रद्धा करते हुए वस्त्र त्याग दिये इय पण्णविओ वि बहुं सो मिच्छत्तोदयाकुलियभावो। जिणमयमसद्दहंतो छड्डियवत्थो समुज्जाओ॥ २६०६॥ गणी जी ने कहा है कि बोटिकों के मत, लिंग (वेश) और चर्या जैनों (श्वेताम्बरों) ख–'आवश्यकमूलभाष्य' आवश्यकसूत्र पर लिखे गये मूलभाष्य का नाम है। "आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं : १. मूलभाष्य, २. भाष्य और ३. विशेषावश्यकभाष्य। प्रथम दो भाष्य बहुत ही संक्षिप्तरूप में लिखे गये और उनकी अनेक गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में सम्मिलित कर ली गयीं। --- उपलब्ध भाष्यों की प्रतियों के आधार पर केवल दो भाष्यकारों के नाम का पता लगता है। वे हैं आचार्य जिनभद्र और संघदासगणी। आचार्य जिनभद्र ने दो भाष्य लिखे हैं : विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य। संघदासगणी के भी दो भाष्य हैं : बृहत्कल्पभाष्य और पंचकल्पभाष्य।" (डॉ. मोहनलाल मेहता : जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास / भाग ३/पृ. १२९-१३०)। इस कथन से ज्ञात होता है कि 'मूलभाष्य' और 'भाष्य' के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं। ११. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति १/२/३-४/ पृ.६६ । १२. वही /१/१/८/ पृ.१९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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