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द्वितीय प्रकरण शिवभूति यापनीयमत-दिगम्बरमत-प्रवर्तक नहीं
आवश्यकनियुक्ति (छठी शती ई० का प्रारंभिक भाग),९.१ आवश्यकमूलभाष्य (छठी शती ई० का अन्तिम भाग),९.२ विशेषावश्यकभाष्य (सातवीं शती ई०),९.२ प्रवचनपरीक्षा (१६वीं शती ई०)९.३ आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित बोटिकमतोत्पत्तिकथा में कहा गया है कि बोटिक शिवभूति ने वीर नि० सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में बोटिकमत अर्थात् दिगम्बरमत का प्रवर्तन किया था। बीसवीं सदी ई० के श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने भी श्वेताम्बरग्रन्थों में इस प्रकार के उल्लेख को स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-"श्वेताम्बर जैनसंघ के अनेक नये-पुराने ग्रन्थों में दिगम्बरसम्प्रदाय का उल्लेख और वर्णन है, पर कहीं भी इनको श्वेताम्बरों ने 'आजीविक' अथवा 'त्रैराशिक' नहीं कहा। भाष्यों और चूर्णियों में सर्वत्र इनको 'बोडिय' (बोटिक) इस नाम से व्यवहृत किया है। दसवीं सदी के बाद के ग्रन्थों में आशाम्बर, दिगम्बर, दिक्पट इत्यादि नामों का इनके लिए प्रयोग हुआ है।"(अ.भ.म./ पृ.२७८)। किन्तु मुनि जी ने अपने पूर्वाचार्यों के इस कथन को अमान्य करते हुए एक नई कल्पना को जन्म दिया है। वह यह कि 'बोटिक शिवभूति ने दिगम्बरमत का प्रवर्तन नहीं किया था, अपितु यापनीयमत चलाया था। दिगम्बरमत का प्रारम्भ विक्रम की छठी शताब्दी (कदम्बवंशी राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के समय ४७० ई०) में दक्षिण भारत के आचार्य कुन्दकुन्द ने किया था।' (श्र. भ. म. / पृ. ३०२ / पा.टि.१)। और इस कल्पना
९.१. आवश्यकनियुक्ति के कर्ता भद्रबाहु (द्वितीय) का समय विक्रम सं० ५६२ (५०५ ई०)।
(डॉ० मोहनलाल मेहता : जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास / भाग ३ / पृ. ७०)। ९.२. आवश्यकमूलभाष्य के कर्ता के नाम एवं समय का उल्लेख इतिहास-ग्रन्थों में नहीं
मिलता। इसकी अनेक गाथाएँ विशेषावश्यक-भाष्य में सम्मिलित कर ली गयी हैं। (जै.सा.बृ.इ. भा. ३/ पृ. १२९-१३०)। भाष्यों का रचनाकाल नियुक्तियों के रचनाकाल (विक्रम सं० ५००-६०० का मध्य-जै.सा.बृ.इ./ भा.३ / पृ.७०) के बाद आता है। विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का उत्तरकाल विक्रम सं० ६५०-६६० के आसपास माना गया है। विशेषावश्यकभाष्य उनकी अन्तिम कृति थी। (जै.सा.ब.इ./ भा.३/प्र.१३५)। अतः आवश्यक मलभाष्य की रचना छठी शती
ई० के अन्त में हुई होगी। ९.३. प्रवचनपरीक्षा का रचनाकाल विक्रमसंवत् १६२९ (ई० सन् १५७२)। (डॉ. जगदीशचन्द्र
जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास / पृ.२८७)।
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