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________________ अ०२/प्र०१ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १९ ई. के 'विष्णुपुराण' में मयूरपिच्छीधारी दिगम्बरमुनि के रूप में मायामोह को जैनधर्म का प्रवर्तक बतलाया गया है। पाँचवीं शती ई० में समुत्पन्न प्रसिद्ध ज्योतिश्शास्त्री वराहमिहिर ने 'नग्न', 'दिग्वासस्' और 'निर्ग्रन्थ' शब्दों से दिगम्बरजैन मुनियों के अस्तित्व का ज्ञापन किया है। सातवीं शती ई० के सुप्रसिद्ध संस्कृतगद्यकवि बाणभट्ट की 'कादम्बरी' और 'हर्षचरित' में दिगम्बरजैन मुनियों के लिए 'क्षपणक', 'नग्नाटक' और 'मयूरपिच्छधारी' शब्दों का प्रयोग हुआ है। श्वेताम्बरग्रन्थ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी महावीर द्वारा प्रवर्तित तीर्थ को अचेलक कहा गया है, केवल भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म को संतरुत्तर (अचेल-सचेल द्विविधरूप) बताया है। श्री हरिभद्रसूरि ने कहा है कि भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर, दोनों ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया था। इन पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चौबीसों तीर्थंकर सर्वथा अचेल (सर्वांग एवं सर्वकाल वस्त्ररहित) थे और उनकी अनुगामिनी श्रमणपरम्परा भी सर्वथा अचेल थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'तीर्थंकरों ने सवस्त्रतीर्थ का उपदेश दिया था' यह मत कपोलकल्पित है। ७. देखिये, चतुर्थ अध्याय। ८. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिदो वद्धमाणेण पासेण य महाजसा॥ २३ / २९ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र । ९. आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो य॥ १२॥ पञ्चाशक। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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