SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०१ जी की कल्पनानुसार भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म सर्वथा अचेल नहीं था, कोई न कोई वस्त्र तीर्थंकरों और जिनकल्पिक साधुओं के भी शरीर पर रहता था। विरोधी प्रमाण किन्तु प्रमाण इसके विरुद्ध उपलब्ध होते हैं। सिन्धुघाटी के उत्खनन में मोहेनजोदड़ो और हड़प्पा (जो अब पाकिस्तान में हैं) से ई० पू० २४०० वर्ष पहले की सिन्धुसभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें हड़प्पा से एक मस्तकविहीन कायोत्सर्ग-ध्यानमुद्रा में नग्न मूर्ति उपलब्ध हुई है। पुरातत्त्वविदों का मत है कि यह जैनतीर्थंकर या दिगम्बरजैन साधु की प्रतिमा है। लोहानीपुर (पटना, बिहार) में भी बिलकुल ऐसी ही मौर्यकालीन (ई० पू० तृतीय शताब्दी की) जिनप्रतिमा प्राप्त हुई है। दोनों प्रतिमाओं में आश्चर्यजनक साम्य है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि हड़प्पा से प्राप्त उक्त प्रतिमा जिनप्रतिमा ही है। मथुरा में प्राप्त कुषाणकालीन (ई० प्रथम शताब्दी की) जिन प्रतिमाएँ भी सर्वथा नग्न हैं। उनके किसी भी भाग पर कोई वस्त्र नहीं है। गुप्तकालीन (चतुर्थ शती ई० की) जैनमूर्तियाँ भी ऐसी ही हैं। ऋग्वेद (१५०० ई० पू०) में वातरशन (वायुरूपी वस्त्रवाले) मुनियों एवं शिश्नदेवों (नग्नदेवों) का वर्णन किया गया है। उसमें ऋषभ और अरिष्टनेमि के नाम भी हैं। बौद्ध साहित्य में भी निर्ग्रन्थ साधुओं की चर्चा की गई है और सम्राट अशोक के स्तम्भलेखों में निर्ग्रन्थों का उल्लेख हैं। 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए ही प्रयुक्त होता था, श्वेताम्बरमुनि 'श्वेतपट श्रमण' और यापनीयमुनि 'यापनीय' नाम से जाने जाते थे, यह दक्षिण के कदम्बवंशीय राजाओं (पाँचवीं शताब्दी ई०) के अभिलेखों से स्पष्ट है। ई० पू० चतुर्थ शताब्दी के वैदिक-परम्परा के ग्रन्थ महाभारत में 'नग्नक्षपणक' शब्द से दिगम्बरजैन मुनि का वर्णन किया गया है। लगभग इसी समय के 'चाणक्यशतक' (सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री चाणक्य के द्वारा रचित) में भी 'नग्नक्षपणक' शब्द का प्रयोग हुआ है। तीसरी-चौथी शताब्दी ई० में विष्णुशर्मा द्वारा रचित 'पञ्चतन्त्र' में धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देनेवाले नग्नक्षपणकों की कथा वर्णित है। तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ___ उवगरणमाणमेसिं पुरिसाविक्खाए बहुभेयं ॥ २५८४॥ विशेषावश्यकभाष्य। ख-"--- यतस्तीर्थकरा अपि पूर्वोक्तन्यायेन न तावदेकान्तोऽचेलकाः। जिनकल्पिक स्वयम्बुद्धादयः पुनः सर्वकालमेकान्तेन सोपधय एवेति।" हेम.वृत्ति/विशे.भा./गा.२५८४ । ४. देखिये, पंचम अध्याय : 'पुरातत्त्व में दिगम्बरपरम्परा के प्रमाण।' ५. देखिये, चतुर्थ अध्याय : 'जैनेतर साहित्य में दिगम्बर जैन मुनियों की चर्चा।' ६. देखिये, इसी (द्वितीय) अध्याय का षष्ठ प्रकरण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy