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द्वितीय अध्याय
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन
प्रथम प्रकरण
तीर्थंकरों का सवस्त्रतीर्थोपदेशकत्व प्रमाणविरुद्ध
श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (सातवीं शताब्दी ई०) ने यह लिखा है कि कोई भी तीर्थंकर सर्वथा अचेल नहीं थे। सभी एक वस्त्र ग्रहण कर प्रव्रजित हुए थे, जिससे लोगों को यह उपदेश मिल सके कि सवस्त्र रहने पर ही साधु को मोक्ष प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार तीर्थंकरों ने सचेलधर्म ( जिसमें कोई न कोई वस्त्र शरीर पर रखना पड़ता है) का ही प्रवर्तन किया था।' उन्होंने कहा है कि भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत आचार दो प्रकार का था - जिनकल्प और स्थविरकल्प । स्थविरकल्पिक श्रमण कटिवस्त्र या चोलपट्ट धारण करते थे तथा दो चादर और एक कम्बल भी रखते थे। आज भी उनके लिए यही नियम है । वस्त्रलब्धिरहित जिनकल्पिक कटिवस्त्र नहीं पहनते थे, किन्तु चादर या कम्बल से शरीर आच्छादित करते थे और मुखवस्त्रिका एवं ऊननिर्मित रजोहरण ग्रहण करते थे । वस्त्रलब्धिमान् जिनकल्पिकों का शरीर अलौकिक आवरण से ढँक जाता था, इसलिए उन्हें न कटिवस्त्र धारण करने की आवश्यकता होती थी, न चादर या कम्बल रखने की । तथापि उनके लिए मुखवस्त्रिका और रजोहरण ग्रहण करना अनिवार्य था। इस प्रकार भगवान् महावीर की श्रमण परम्परा के साधु किसी न किसी रूप में सचेल (वस्त्रसहित) ही होते आये हैं। निष्कर्ष यह कि जिनभद्रगणी
१. क - तहवि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थं ति ।
अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति ॥ २५८३ ॥ विशेषावश्यकभाष्य | ख–‘“सवस्त्रमेव तीर्थं 'सवस्त्रा एव साधवास्तीर्थे चिरं भविष्यन्ति' इत्यस्यार्थस्योपदेशनं ज्ञापनं तदर्थं गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्तीति । तस्मिंश्च वस्त्रे च्युते क्वापि पतितेऽचेलका वस्त्ररहितास्ते भवन्ति, न पुनः सर्वदा । ततः 'अचेलकाश्च जिनेन्द्राः ' इत्यैकान्तिकं यदुक्तं तद् भवतोऽनभिज्ञत्वसूचकमेवेति भावः । " हेम वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५८३ ।
२. देखिये, इसी अध्याय का तृतीय प्रकरण / शीर्षक ३.३.१. जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न । ' ३. क - जिणकप्पियादओ पुण सोवहवो सव्वकालमेगंतो ।
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