________________
१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० १
। इसका सप्रमाण स्पष्टीकरण 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय ( प्रकरण ६ ) में देखना चाहिए ।
१६
अनेक दिगम्बरग्रन्थों के यापनीयग्रन्थ होने की कल्पना
सर्वप्रथम दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने सन् १९३९ ई० में 'अनेकान्त' (मासिक) में 'यापनीयसाहित्य' शीर्षक से एक शोधलेख प्रकाशित किया था । उसमें उन्होंने दिगम्बरग्रन्थ 'भगवती आराधना' और उसकी 'विजयोदयाटीका' को यापनीयआचार्यों द्वारा रचित बतलाया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास' के द्वितीय संस्करण (पृ. ५२१ - ५५३ ) में उमास्वामीकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' एवं वट्टकेर-रचित 'मूलाचार' को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है ।
'प्रेमी' जी से दिशानिर्देश पाकर श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने अपने ग्रन्थ ‘श्रमण भगवान् महावीर' (सन् १९४१ ) में 'भगवती - आराधना' और 'मूलाचार' को यापनीयपरम्परा के ग्रन्थों के रूप में उदाहृत किया है।
'प्रेमी' जी के ग्रन्थ से ही मार्गदर्शन प्राप्त कर दिगम्बर विदुषी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने 'यापनीय और उनका साहित्य' नामक ग्रन्थ में मूलाचार, भगवतीआराधना, उसकी विजयोदयाटीका, तत्त्वार्थसूत्र, सन्मतिसूत्र, हरिवंशपुराण तथा बृहत्कथाकोश को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
इन समस्त ग्रन्थकारों द्वारा निर्मित भूमिका पर आरूढ़ होकर माननीय डॉ० सागरमल जी ने अपना विशाल ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' रचा और उसमें उपर्युक्त ग्रन्थों को शामिल कर निम्नलिखित १६ दिगम्बरग्रन्थों को यापनीय परम्परा का ग्रन्थ बतलाया हैहै - १. कसायपाहुड, २. कसायपाहुड - चूर्णिसूत्र, ३. षट्खण्डागम, ४. भगवतीआराधना, ५. भगवती - आराधना की विजयोदया टीका, ६. मूलाचार, ७. तिलोयपण्णत्ती, ८. रविषेणकृत पद्मपुराण, ९. वराङ्गचरित, १०. हरिवंशपुराण, ११. स्वयम्भूकृत पउमचरिउ, १२. बृहत्कथाकोश, १३. छेदपिण्ड, १४. छेदशास्त्र, १५. प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी, १६. बृहत्प्रभाचन्द्र-कृत तत्त्वार्थसूत्र ।
-
१. गृध्रपिच्छाचार्यकृत दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र को, जिसे पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयग्रन्थ माना है और श्वेताम्बरपरम्परा श्वेताम्बरग्रन्थ मानती है, उसे डॉ० सागरमल जी ने उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा अर्थात् श्वेताम्बर - यापनीय- मातृपरम्परा का ग्रन्थ घोषित किया है । २. आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र भी दिगम्बरग्रन्थ है ।
५. जैन साहित्य और इतिहास / द्वितीय संस्करण / पृ.५६ - ७३।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org