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________________ काल्पनिक सामग्री से निर्मित तर्कप्रासाद / ११ अ० १ उसे श्वेताम्बर अपनी परम्परा का ग्रन्थ मानते हैं, किन्तु डॉ० सागरमल जी ने उसे भी उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा में रचित बतलाया है। इसके विपरीत डॉ० ए० एन० उपाध्ये और उनका अनुसरण करनेवाली श्रीमती डॉ० कुसुम पटेरिया ने उसकी यापनीयग्रन्थ के रूप में पहचान की है । इस प्रकार १६ दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का और २ ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का भी, श्वेताम्बरपरम्परा का भी तथा श्वेताम्बरों और यापनीयों की कपोल कल्पित मातृपरम्परा का भी बतलाया गया है । श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इन महानुभावों ने यह महान् कार्य पूर्णतः अटकलों और अपनी स्वच्छन्द कल्पनाओं के आधार पर किया है, जिसके प्रमाण प्रस्तुत ग्रन्थ के उत्तरवर्ती अध्यायों में द्रष्टव्य हैं। आगे निर्दिष्ट चार मतों ( क्र. १७-२० ) की कल्पना 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों को यापनीयों द्वारा रचित सिद्ध करने के लिए की है। १७ गुणस्थान- सिद्धान्त के विकास की कल्पना लेखक ने यह कल्पना की है कि चौदह गुणस्थानों का उपदेश जिनेन्द्रदेव ने नहीं दिया था, अपितु उत्तरकालीन आचार्यों ने नये-नये गुणस्थानों का आविष्कार करते हुए चौदह गुणस्थानों का विकास किया है। यह कार्य चौथी शताब्दी ई० के अन्त तक पूर्ण हुआ। इस कल्पित मत का प्रयोग लेखक ने यह सिद्ध करने के लिए किया है कि जिन कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती - आराधना आदि दिगम्बरग्रन्थों में गुणस्थानों का पूर्ण वर्णन मिलता है अथवा गुणस्थानानुसार जीव के परिणामों का निरूपण हुआ है, उनकी रचना चौथी शताब्दी ई० के पश्चात् हुई है । और चूँकि इन ग्रन्थों में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ मिलती हैं, अतः ये उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा के उत्तराधिकारियों द्वारा रचित हैं । यतः श्वेताम्बरग्रन्थ अर्धमागधी प्राकृत में रचे गये हैं और उपर्युक्त ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी है, अतः ये श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं है । इसलिए निश्चित होता है कि इनकी रचना उक्त परम्परा के दूसरे उत्तराधिकारी यापनीयों द्वारा की गई है। इस गुणस्थान - विकासवादी कल्पना की कल्पितता 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में सिद्ध की जायेगी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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