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________________ अ० १ ८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ का पात्र है । इस प्रकार उन्होंने सग्रन्थ में भी निर्ग्रन्थ की कल्पना कर ली। इस कल्पना की कपोलकल्पितता का प्रदर्शन द्वितीय अध्याय में किया जायेगा । १३ मूलसंघ के यापनीयसंघ का पूर्वनाम होने की कल्पना भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत निरपवाद या ऐकान्तिक अचेलतीर्थ का अनुगमन करनेवाले श्रमणसंघ का नाम निर्ग्रन्थसंघ है। उससे श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ था, अतः निर्ग्रन्थसंघ मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । किन्तु मुनि कल्याणविजय जी एवं उनके अनुगामी डॉ० सागरमल जी मानते हैं कि भगवान् महावीर ने सर्वथा अचेललिंग को नहीं, अपितु अचेल और सचेल, दोनों लिंगों को मुक्ति का मार्ग बतलाया है। अतः वे मात्र अचेललिंग से मुक्ति माननेवाले निर्ग्रन्थसंघ को भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग का अनुगामी नहीं मानते, अपितु विक्रम की छठी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रवर्तित मोक्षमार्ग का अनुगामी मानते हैं । किन्तु मूलसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख दक्षिण भारत के नोणमंगल नामक स्थान में प्राप्त दो ताम्रपत्रों में मिलता है, जो क्रमशः ईसवी सन् ३७० और ४२५ के माने जाते हैं। इससे निर्ग्रन्थपरम्परा विक्रम की छठी शती से बहुत पहले की सिद्ध होती है, जिससे उक्त विद्वानों की मान्यता गलत ठहरती है। इसलिए वे इस बात के लिए बाध्य हुए कि मूलसंघ और निर्ग्रन्थसंघ एक ही हैं, इस सत्य को मिटा दिया जाय। अतः मुनि कल्याणविजय जी ने यह मिथ्या प्रचार किया कि "मूलसंघ यापनीयसंघ का पूर्वनाम था। जब उत्तर भारत में शिवभूति ने अपना नया मत चलाया, तब उसने प्रारंभ में अपने सम्प्रदाय का नाम 'मूलसंघ' रखा, लेकिन दक्षिण भारत में जाने पर वह 'यापनीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ। "३ डॉ० सागरमल जी ने भी मुनि जी के मत का अनुसरण किया है, किन्तु वे मानते हैं कि उक्त सम्प्रदाय के दक्षिण में पहुँचने पर ही वह पहले मूलसंघ के नाम से अभिहित हुआ और उसके लगभग सौ वर्ष बाद उसे 'यापनीय' नाम मिला। दोनों विद्वानों के कथनों में यह विरोध इस बात का सूचक है कि उनकी मान्यताएँ प्रमाणों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि मनगढ़ंत हैं। इसका विवेचन 'यापनीय संघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में किया जायेगा । २. देखिये, सप्तम अध्याय / तृतीय प्रकरण । ३. देखिये, द्वितीय अध्याय / द्वितीय प्रकरण / शीर्षक ३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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