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________________ अ०१ काल्पनिक सामग्री से निर्मित तर्कप्रासाद / ७ इससे साधु के लिए श्वेताम्बर-आगमों में भी विहित दस स्थितिकल्पों में से आचेलक्य स्थितिकल्प (चेल का सर्वथा परित्याग कर पूर्ण नग्न रहना) और नाग्न्यपरीषहजय असंभव हो जाते हैं, जिससे श्वेताम्बर साधुओं का आचरण आगमविरुद्ध सिद्ध होता है। अतः उसे आगमानुकूल सिद्ध करने के लिए श्वेताम्बराचार्यों ने आचेलक्य और नग्नता का अर्थ ही बदल दिया। उन्होंने अचेलता के दो भेद कल्पित किये : मुख्य और औपचारिक। जिनेन्द्र के सर्वथा अचेल रहने को तथा वस्त्रलब्धियुक्त जिनकल्पी साधु के मुखवस्त्रिका और रजोहरण के अतिरिक्त कोई लौकिक वस्त्र धारण न करने को मुख्य अचेलता नाम दिया तथा फटे पुराने (जीर्णशीर्ण) वस्त्र पहनने को औपचारिक अचेलता कहा। मुख्य अचेलता का अधिकारी तीर्थंकरों और वस्त्रलब्धियुक्त जिनकल्पिक साधुओं को बतलाया तथा औपचारिक अचेलता का अधिकारी शेष साधुओं को। यह भी कल्पित कर लिया कि वर्तमानकाल में मुख्य अचेलता संयमोपकारी नहीं है, औपचारिक अचेलता से ही संयम सम्भव है। इस प्रकार श्वेताम्बराचार्यों ने वस्त्रधारी साधुओं में भी उपचार से अचेलता या नग्नता घटित कर उन्हें आचेलक्य स्थितिकल्प का पालक एवं नाग्न्यपरीषह का विजेता सिद्ध कर दिया। इस कल्पना की कपोलकल्पितता का अनावरण तृतीय अध्याय में किया जायेगा। सग्रन्थ में निर्ग्रन्थ की कल्पना जिनागम में परिग्रह को ग्रन्थ कहा गया है। यह दो प्रकार का है : अभ्यन्तर और बाह्य। मिथ्यात्व-कषायादि अभ्यन्तरपरिग्रह कहलाते हैं और वस्त्रपात्रादि बाह्यपरिग्रह। जिस साधु के पास दोनों प्रकार के ग्रन्थों का अभाव होता है, वही निर्ग्रन्थ कहलाता है। श्वेताम्बर साधुओं के पास वस्त्रपात्रादि बाह्यपरिग्रह का सद्भाव होता है, अतः वे निर्ग्रन्थ नहीं कहला सकते। फलस्वरूप वे भगवान् महावीर की परम्परा के साधु भी नहीं कहला सकते। इस समस्या से निपटने के लिए श्वेताम्बराचार्यों ने वस्त्रपात्रादि बाह्यपरिग्रह को ग्रन्थ मानना ही छोड़ दिया। उन्होंने यह घोषित कर दिया कि वस्त्रपात्रादि बाह्यपरिग्रह संयम का साधन होने से 'ग्रन्थ' की परिभाषा में नहीं आता। अतः बाह्यग्रन्थ रहते हुए भी केवल आभ्यन्तरग्रन्थ का अभाव होने से श्वेताम्बर साधु 'निर्ग्रन्थ' संज्ञा १. क-हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५९८-२६०१। ख-"इहाचेलक्यं द्विधा-मुख्यमौपचारिकं च। तत्र मुख्यं तीर्थकृतां कस्यचिज्जिनकल्पिकस्य च।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/६/ पृ.७५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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