________________
६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
९
अचेल एवं सचेल जिनकल्पों के व्युच्छेद की कल्पना
प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने पञ्चमकाल में सचेल - श्वेताम्बरमत को ही जिनोक्त, उचित और अनिवार्य तथा अचेल - दिगम्बरमत को निह्नवमत (तीर्थंकरोपदेश के विपरीत स्वकल्पित मिथ्यामत) अत एव अनर्थकारी सिद्ध करने के लिए यह कल्पना की है कि बोटिक - शिवभूति-वर्णित अचेल - जिनकल्प और जिनभद्रगणि- वर्णित सचेल-जिनकल्प जम्बूस्वामी के निर्वाण के पूर्व तक अस्तित्व में थे, किन्तु निर्वाण के पश्चात् अर्थात् पंचमकाल का आरम्भ होते ही प्रथमसंहननधारी मनुष्यों की उत्पत्ति बन्द हो गयी, जिससे कोई भी पुरुष दोनों प्रकार के जिनकल्पों को धारण करने योग्य नहीं रहा अर्थात् जिनकल्प का व्युच्छेद हो गया । अतः जिनेन्द्रदेव ने पंचमकाल में मुनियों को अचेललिंग ग्रहण करने का निषेध किया है और एकमात्र सचेललिंग ही ग्रहण करने योग्य बतलाया है। अतः पंचमकाल में अचेललिंग को उचित बतलानेवाला दिगम्बरमत जिनोपदिष्ट नहीं है, अपितु स्वकल्पित होने से निह्नवमत है । इस कल्पना की कपोलकल्पितता द्वितीय अध्याय में प्रकट की जायेगी ।
१०
सामान्यपुरुषों के लिए तीर्थंकरलिंग-ग्रहण के निषेध की कल्पना
उपर्युक्त प्रयोजन से ही श्वेताम्बराचार्यों ने यह कल्पना की है कि सामान्य पुरुष अर्थात् जो उसी भव में तीर्थंकर होनेवाले नहीं हैं, भले ही वे जिनकल्प के योग्य हों, तीर्थंकरलिंग (अचेललिंग ) ग्रहण करने के योग्य नहीं होते । अतः तीर्थंकरों ने उनके लिए तीर्थंकरलिंग ग्रहण करने का निषेध किया है। यह कथन भी मनगढन्त है। इसकी मनगढन्तता का खुलासा द्वितीय अध्याय में द्रष्टव्य है ।
अ० १
११
अचेलत्व के मुख्य और औपचारिक भेदों की कल्पना
उपाध्याय धर्मसागरकृत स्वोपज्ञवृत्तियुक्त 'प्रवचनपरीक्षा' (१५७२ ई०) ग्रन्थ से विदित होता है कि श्वेताम्बर जिनकल्पी साधु भी मुखवस्त्रिका एवं ऊन से निर्मित रजोहरण धारण करते थे तथा जिन्हें वस्त्रऋद्धि प्राप्त हो जाती थी, उनकी नग्नता बिना वस्त्र धारण किये ही ढँक जाती थी, शेष जिनकल्पियों को एक, दो या तीन कल्प (चादर - कम्बल) धारण करने की अनुमति थी, जिनसे वे शरीर को आच्छादित कर गुह्यांग का गोपन करते थे । अतः स्थविरकल्पियों के समान वे भी न अचेल रहते थे, न नग्न ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org