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काल्पनिक सामग्री से निर्मित तर्कप्रासाद /५ पूर्ण करने के पश्चात् दिगम्बरपरम्परा द्वारा सम्मत आगमों के निदिध्यासन-चिन्तन-मनन से जब जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्ररूपित जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप और तीर्थंकरों द्वारा आचरित श्रमणधर्म को पहचाना, तो उन्हें अपने प्रगुरु माघनन्दी द्वारा संस्थापित धर्म
और श्रमणाचार-विषयक मान्यताएँ धर्म और श्रमणाचार के मूलस्वरूप के अनुरूप प्रतीत नहीं हुईं। उन्होंने संभवतः अपने प्रगुरु, गुरु और भट्टारकसंघ द्वारा सम्मत उन कतिपय अभिनव मान्यताओं के समूलोन्मूलन और पुरातन मान्यताओं की पुनः संस्थापना का संकल्प किया।" (जै.ध.मौ.इ./ भा.३/पृ.१४०)। अर्थात् उन्होंने भट्टारकपरम्परा छोड़कर दिगम्बरमुनि-परम्परा को पुनरुज्जीवित किया। इस कहानी की मनगढन्तता पर 'कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त' नामक अष्टम अध्याय में प्रकाश डाला जायेगा।
उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ की कल्पना डॉ० सागरमल जी ने यह इतिहासविरुद्ध उद्भावना की है कि भगवान् महावीर ने अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मोक्ष होने का उपदेश दिया था। अतः उत्तरभारत में एकमात्र सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ विद्यमान था, जिसका अस्तित्व ईसा की पंचम शताब्दी के प्रारंभ तक बना रहा, तत्पश्चात् इस संघ से सचेलाचेलमार्गी यापनीयसंघ तथा सर्वथा सचेलमार्गी श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ और यह विघटित हो गया। इस कल्पना की कपोलकल्पितता का अनावरण द्वितीय अध्याय में किया जायेगा।
सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से श्वेताम्बर
यापनीय सम्प्रदायों के उद्भव की कल्पना डॉ० सागरमल जी ने उपर्युक्त कल्पना के आधार पर इस नयी कल्पना को जन्म दिया है कि ईसा की पंचम शताब्दी के प्रारंभ में कथित उत्तरभारतीय-सचेलाचेलनिर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव हुआ था, न कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का। दिगम्बरसम्प्रदाय की तो स्वतंत्ररूप से स्थापना विक्रम की छठी शताब्दी (ईसा की पाँचवीं शती) में दक्षिण भारत के आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा की गयी थी। इस कल्पना के कपोलकल्पित होने का बोध उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ (निर्ग्रन्थपरम्परा) की कपोलकल्पितता का अनावरण हो जाने पर स्वतः हो जायेगा। इस कल्पना के क्या प्रयोजन थे, इसका प्ररूपण द्वितीय अध्याय में किया जायेगा।
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