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________________ ४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०१ गयी है कि 'आवश्यकमूलभाष्य' आदि ग्रन्थों में बोटिक शब्द का प्रयोग दिगम्बरों के लिए नहीं, अपितु यापनीयों के लिए किया गया है और इसलिए वीर नि० सं० ६०९ में शिवभूति ने दिगम्बरमत का नहीं, बल्कि यापनीयमत का प्रवर्तन किया था, अतः दिगम्बरमत वीर नि० सं० ६०९ में भी उत्पन्न नहीं हुआ था। वह उससे भी अर्वाचीन है। इस कहानी की असत्यता का प्रकाशन द्वितीय अध्याय में किया जायेगा। कुन्दकुन्द के दिगम्बरमतप्रवर्तक होने की कल्पना दिगम्बरमत की उत्पत्ति के विषय में मुनि कल्याणविजय जी ने जो कथा बुनी है, वह यह है कि उसकी स्थापना विक्रम की छठी शताब्दी में दक्षिण भारत के आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी, जो आरंभ में बोटिक शिवभूति द्वारा प्रवर्तित यापनीयसंघ में दीक्षित हुए थे। किन्तु बाद में यापनीयसंघ की वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि की मान्यताएँ उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुईं। इसलिए उनका निषेध करने के लिए उन्होंने आवाज उठायी, किन्तु उनके गुरु. तथा संघ के अधिकांश साधुओं ने उनका समर्थन नहीं किया, प्रत्युत विरोध किया। फलस्वरूप वे संघ से अलग हो गये और अपने समर्थकों को लेकर नया सम्प्रदाय बना लिया, जो दिगम्बरसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस कथा की कपोलकल्पितता द्वितीय अध्याय में प्रदर्शित की जायेगी। कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीय होने की कल्पना मुनि कल्याणविजय जी ने उपर्युक्त मनगढन्त कथा में यह भी गढ़ा है कि कुन्दकुन्द पहले यापनीयपरम्परा में दीक्षित हुए थे, बाद में उससे अलग होकर दिगम्बरमुनि बन गये। द्वितीय अध्याय में कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत-प्रवर्तक होने की कथा के मनगढन्त सिद्ध हो जाने पर यह भी सिद्ध हो जायेगा कि उनके प्रथमतः यापनीयपरम्परा में दीक्षित होने की कथा भी मनगढन्त है। ६ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कल्पना मुनि कल्याणविजय जी ने आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीय होने की कथा गढ़ी है, तो श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने उनके प्रथमतः भट्टारकसम्प्रदाय के पट्टाधीश होने की कहानी रच डाली। वे लिखते हैं-"कुन्दकुन्द माघनन्दी के शिष्य जिनचन्द्र के पास भट्टारकपरम्परा में दीक्षित हुए थे। मेधावी मुनि कुन्दकुन्द ने अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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