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प्रथम अध्याय काल्पनिक सामग्री से निर्मित तर्कप्रासाद मान्य श्वेताम्बर मुनियों और विद्वानों ने दिगम्बरमत को निह्नवमत (तीर्थंकरोपदेश के विपरीत स्वकल्पित मिथ्यामत) एवं अर्वाचीन, दिगम्बरपरम्परा के बहुमान्य आचार्य कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शताब्दी का तथा दिगम्बरसाहित्य को यापनीयसाहित्य या श्वेताम्बरसाहित्य सिद्ध करने के लिए जो तर्कप्रासाद खड़ा किया है, वह काल्पनिक सामग्री से निर्मित है। वह काल्पनिक सामग्री इतिहासविरुद्ध एवं प्रमाणविरुद्ध मिथ्यामतों की कल्पना से निष्पन्न हुई है। वे कल्पनाएँ इस प्रकार हैं
तीर्थंकरों के सवस्त्र-तीर्थोपदेशक होने की कल्पना श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (सातवीं शती ई०) ने यह मत उद्भावित किया है कि कोई भी तीर्थंकर सर्वथा अचेल नहीं थे, सभी एक वस्त्र ग्रहण कर प्रव्रजित हुए थे, जिससे लोगों को यह उपदेश प्राप्त हो सके कि सवस्त्र रहने पर ही साधु को मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार तीर्थंकरों ने सचेलधर्म का ही उपदेश दिया था। इस मत की कपोलकल्पितता का उद्घाटन द्वितीय अध्याय में किया जायेगा।
बोटिक शिवभूति के दिगम्बरमतप्रवर्तक होने की कल्पना
एकान्त या निरपवाद अचेलधर्म (दिगम्बरमत) की उत्पत्ति के विषय में पुरातन श्वेताम्बराचार्यों ने यह कथा गढ़ी है कि उसका प्रवर्तन वीर नि० सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में श्वेताम्बरमत का परित्याग कर अलग हुए बोटिक शिवभूति नाम के साधु ने किया था। इस कथा का विस्तार से वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जायेगा। और कथा में वर्णित तथ्यों के ही आधार पर सिद्ध किया जायेगा कि निरपवाद अचेलधर्म या दिगम्बरमत जिनेन्द्रोपदिष्ट है, बोटिक शिवभूति द्वारा प्रणीत नहीं।
बोटिक शिवभूति के यापनीयमतप्रवर्तक होने की कल्पना
बीसवीं सदी ई० के श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी एवं श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया, डॉ० सागरमल जी जैन आदि के द्वारा यह कहानी रची
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