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________________ [एक सौ अठहत्तर] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ५. इसमें श्वेताम्बरीय दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा उल्लिखित है। वास्तविकता यह है कि इनमें से एक भी हेतु 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उसमें ऐसे सिद्धान्तों को मान्यता दी गयी है, जो यापनीयमत के सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और परशासनमुक्ति, इन मौलिक सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं। यथा १. 'प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी' (पृ.११५) में आचेलक्य आदि २८ गुण मुनि के मूलगुण अर्थात् आधारभूत, अनिवार्य गुण कहे गये हैं, जिससे मुनि के लिए आपवादिक सचेललिंग का निषेध हो जाता है, जब कि यापनीयमत में आपवादिक सचेललिंग मान्य है। २. मोक्ष के लिए पाँच महाव्रतों का पालन आवश्यक बतलाया गया है, जिनमें अपरिग्रह महाव्रत के अन्तर्गत सूती, ऊनी, रेशमी आदि किसी भी प्रकार के वस्त्र का एक धागा भी रखने का निषेध किया गया है। (पृ.१२९-१३०)। इससे स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं परतीर्थिकमुक्ति का निषेध हो जाता है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। ३. वस्त्र, भाण्ड (वर्तन) आदि दश प्रकार के बाह्य ग्रन्थ और मिथ्यात्वादि चौदह प्रकार के अभ्यन्तर ग्रन्थ, इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों से रहित मनुष्य को निर्ग्रन्थ नाम दिया गया है (पृ.६१-६२) और कहा गया है कि सर्वज्ञप्रणीत आगम में निर्ग्रन्थलिंग को ही मोक्ष का हेतु बताया गया है। (पृ.६४-६९)। इससे सभी तरह के वस्त्रधारी स्त्री-पुरुषों की मुक्ति अमान्य हो जाती है, जब कि यापनीयमत में वस्त्रधारी स्त्रीपुरुषों की मुक्ति स्वीकार की गयी है। ४. अन्य मतों और अन्य लिगों की प्रशंसा को अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग बतलाने को दर्शनाचार का परित्याग कहा गया है। (पृ.१६०-१६१)। यह यापनीयों के परशासनमुक्ति के सिद्धान्त के विरुद्ध है। प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। इसलिए डॉ० सागरमल जी ने उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु सामने रखे हैं, वे असत्य हैं, अर्थात् १. भले ही प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी की विषयवस्तु का लगभग ८० प्रतिशत भाग श्वेताम्बरीय आवश्यकसूत्र से समानता रखता हो, किन्तु वह उससे गृहीत नहीं है, अपितु वह उस मूल निर्ग्रन्थपरम्परा से आया है, जो वर्तमान में दिगम्बरपरम्परा कहलाती है तथा जिससे श्वेताम्बर-परम्परा का उद्भव हुआ है। उसी से वे गाथाएँ आयी हैं, जिनका ज्ञाताधर्मकथांग, सूत्रकृतांग एवं दशवैकालिकसूत्र की गाथाओं से साम्य है। अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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