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________________ ग्रन्थसार [एक सौ सतत्तर] प्रतीत होता है कि यह परम्परा एलक और क्षुल्लक को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के ही अन्तर्गत रखती है। यह छेदपिण्ड के यापनीयग्रन्थ होने का प्रमाण निरसन-छेदपिण्ड की गाथा क्र. ३०३ में 'देशयति' शब्द 'देशविरत' (श्रावक) के ही अर्थ में प्रयुक्त है, 'श्रमण' के अर्थ में नहीं, यह उक्त गाथा और उसकी उत्तरवर्ती गाथाओं के विवरण से स्पष्ट हो जाता है। उत्तरवर्ती गाथाओं क्र. ३०५ एवं ३०६ में 'देशयति' के स्थान में 'देसविरदाणं' (देशविरतानां) शब्द का प्रयोग कर यह बात स्पष्ट कर दी गयी है। अतः छेदपण्डि यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। छेदशास्त्र इस ग्रन्थ की विषयवस्तु 'छेदपिण्ड' पर ही आधारित है। इसमें मुनियों के वे ही दिगम्बरमान्य २८ मूलगुण वर्णित हैं, जो छेदपिण्ड में वर्णित हैं तथा 'आचेलक्य' मूलगुण को भंग करने पर उन्हीं प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है, जिनका छेदपिण्ड में है। डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि 'यदि इसे छेदपिण्ड का ही एक संक्षिप्तरूप कहा जाय, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।' (जै.ध.या.स./ पृ.१५४)। अतः डॉ० सागरमल जी ने जिन कारणों से छेदपिण्ड को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है, उन्हीं कारणों से छेदशास्त्र को भी माना है। किन्तु यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका है कि छेदपिण्ड दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। अतः छेदपिण्ड का ही संक्षिप्तरूप होने से यह स्वतः सिद्ध है कि छेदशास्त्र भी दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी इसे आवश्यक (प्रतिक्रमणसूत्र) शीर्षक से निर्दिष्ट करते हुए डॉ० सागरमल जी 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' (पृ.१६०-१६५) ग्रन्थ में लिखते हैं कि वह उन्हें निम्नलिखित कारणों से यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है १. इसकी विषयवस्तु का लगभग ८० प्रतिशत भाग वही है, जो श्वेताम्बरपरम्परा के आवश्यकसूत्र में हैं। २. इसके टीकाकार प्रभाचन्द्र यापनीय थे। ३. इसमें 'रात्रिभोजन-विरमण' को सर्वत्र छठे व्रत या अणुव्रत के रूप में उल्लिखित किया गया है। यह मान्यता श्वेताम्बरों में और भगवती-आराधना आदि यापनीयग्रन्थों में मिलती है। ४. इसमें श्वेताम्बर-आगम 'ज्ञाताधर्मकथांग' एवं 'सूत्रकृतांग' की गाथाएँ और विषयवस्तु प्राप्त होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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