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________________ [एक सौ छहत्तर] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ निरसन-रविषेण दिगम्बराचार्य थे, यह १९वें अध्याय में प्रमाणित किया जा चुका है। अतः यदि उनके गुरुओं के गुरु इन्द्र 'छेदपिण्ड' के कर्ता थे, तो उनका भी दिगम्बर होना सुनिश्चित है। इस प्रकार भी 'छेदपिण्ड' दिगम्बराचार्यकृत ही सिद्ध होता है। ४. हेतु-यापनीयसंघी पाल्यकीर्ति शाकटायन ने अपने सूत्रपाठ में इन्द्र का उल्लेख किया है। पाल्यकीर्ति यापनीय थे, अतः उनके गुरु इन्द्र भी यापनीय रहे होंगे। निरसन-ये यापनीय हो सकते हैं, किन्तु 'छेदपिण्ड' के कर्ता नहीं, क्योंकि उसमें मुनियों के दिगम्बरसम्मत २८ मूलगुणों का वर्णन है, जो यापनीयमत के विरुद्ध ५. हेतु-गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्मकाण्ड की गाथा क्र. ७८५ में इन्द्रनन्दी गुरु को नमस्कार किया है। संभवतः ये ही यापनीयसंघी और छेदपिण्ड के कर्ता थे। निरसन-गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने जिन इन्द्रनन्दी गुरु को प्रणाम किया है, यदि उन्हें 'छेदपिण्ड' का कर्ता स्वीकार किया जाय, तो वे यापनीय किसी भी हालत में सिद्ध नहीं होते, क्योंकि दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द्र का एक जैनाभासी (मिथ्यादृष्टि) को नमस्कार करना कभी भी संभव नहीं है। ६. हेतु-'छेदपिण्ड' में अनेक स्थलों पर 'कल्पव्यवहार' का निर्देश है। इस श्वेताम्बरीय ग्रन्थ के अनुसरण से सिद्ध है कि छेदपिण्ड यापनीयकृति है। निरसन-कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, प्रतिक्रमण आदि अंगबाह्य-श्रुतसम्बन्धी ग्रन्थों का उल्लेख दिगम्बरग्रन्थों में भी है। 'छेदपिण्ड' में जिस 'कल्पव्यवहार' ग्रन्थ का उल्लेख है, वह श्वेताम्बरीय ग्रन्थ नहीं है, अपितु तन्नामक दिगम्बरग्रन्थ ही है, क्योंकि जिन श्वेतपटश्रमणों को छेदपिण्ड (गाथा २८) में पाषण्ड (मिथ्याधर्मप्ररूपक) संज्ञा दी गई हो, उन्हीं श्रमणों के लिए मान्य ग्रन्थ से किसी भी सामग्री का ग्रहण किया जाना संभव नहीं है। इससे सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' यापनीयकृति नहीं है। ७. हेतु-छेदपिण्ड और मूलाचार, दोनों की परम्परा समान प्रतीत होती है। यतः मूलाचार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, अतः छेदपिण्ड भी इसी परम्परा का है। निरसन-मूलाचार दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, यह १५वें अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। अतः छेदपिण्ड भी इसी परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है। ८. हेतु-छेदपिण्ड की गाथा ३०३ में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'देशयति' को संयत के प्रायश्चित्त का आधा देना चाहिए। 'देशयति' शब्द के प्रयोग से यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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