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________________ ग्रन्थसार [एक सौ पचहत्तर] प्रकार के वस्त्रों (कोशज, कार्पासज, वल्कज, रोमज तथा चर्मज) में से किसी भी वस्त्र का अल्पपरिग्रह भी ग्रहण करता है, वह आलोचना, कायोत्सर्ग, नियमयुक्त उपवास तथा सप्रतिक्रमण उपवास का पात्र है।" ___ इस प्रकार 'छेदपिण्ड' में किसी रोग के होने पर भी मुनि का वस्त्रग्रहण आचेलक्यमूलगुण या अपरिग्रहमहाव्रत के भंग का कारण होने से प्रायश्चित के योग्य माना गया है, जब कि यापनीयसम्प्रदाय में लज्जा या शीतादि के सहन में असमर्थ होने पर भी वस्त्रग्रहण की छूट है। इससे सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। फिर भी डॉ० सागरमल जी ने छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी को यापनीयसम्प्रदाय के साहित्य में सम्मिलित किया है। उन्होंने छेदपिण्ड को यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनका निरसन नीचे किया जा रहा है १. हेतु-इसमें श्रमणियों के लिए वे ही प्रायश्चित्त हैं, जो श्रमणों के लिए हैं। श्रमणियों के लिए मात्र पर्यायछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चितों का निषेध है। श्रमणों और श्रमणियों की इस समानता का प्रतिपादन छिदपिण्ड के यापनीयग्रन्थ होने का सूचक है। निरसन-श्रमणियों के लिए जो पयार्यछेद, मूल, परिहार, दिनप्रतिमा और त्रिकालयोग नामक प्रायश्चित्तों का निषेध है, उससे सिद्ध होता है कि छेदपिण्ड ग्रन्थ में श्रमणियों को साधना की दृष्टि से श्रमणों के तुल्य स्वीकार नहीं किया गया है। यह उनके तद्भवमुक्ति-योग्य न होने की घोषणा है। अतः छेदपिण्ड यापनीयग्रन्थ नहीं है। २. हेतु-छेदपिण्ड के कर्ता इन्द्रनन्दी काणूगण के थे। काणूगण यापनीयसंघ का गण था। अतः इन्द्रनन्दी यापनीयसम्प्रदाय के आचार्य थे। इससे सिद्ध है कि छेदपिण्ड यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। निरसन-काणूगण दिगम्बरसंघ (मूलसंघ) का ही गण था। यह यापनीयसंघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय (प्र.३ / शी.४) में सप्रमाण दर्शाया गया है। अतः छेदपिण्ड दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। ३. हेतु-आचार्य रविषेण ने पद्मचरित (पद्मपुराण) में अपनी गुरुपरम्परा में इन्द्र का उल्लेख किया है। रविषेण यापनीय थे, इसलिए उनके गुरु छेदपिण्डकर्ता इन्द्र का भी यापनीय होना स्वाभाविक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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