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[एक सौ चौहत्तर]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ७. हेतु-हरिषेण पुन्नाटसंघीय थे और पुन्नाटसंघ यापनीयसंघ के अन्तर्गत था। अतः बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ है।
निरसन-पुन्नाटसंघ दिगम्बरसंघ के अन्तर्गत था, इस के प्रमाण हरिवंशपुराण नामक २१वें अध्याय (प्र.२/ शी.१) में प्रस्तुत किये जा चुके हैं।
८. हेतु-सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में यापनीयमत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, केवल उसके 'भद्रबाहुकथानक' (क्र.१३१) में काम्बलतीर्थ (श्वेताम्बरसम्प्रदाय) से यापनीयसंघ की उत्पत्ति बतलानेवाला 'ततः काम्बलिकात्तीर्थान्नूनं' इत्यादि श्लोक (८१) यापनीयमत-विरोधी है, अतः वह प्रक्षिप्त है।
निरसन-बृहत्कथाकोश में केवल उपर्युक्त श्लोक ही यापनीयमत-विरोधी नहीं है, अपितु सम्पूर्ण ग्रन्थ यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों से भरा हुआ है। अतः उपर्युक्त श्लोक को प्रक्षिप्त मान लेने पर भी अन्य यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों जैसे स्त्रीमुक्तिनिषेध, सवस्त्रमुक्तिनिषेध, गृहस्थमुक्तिनिषेध आदि की उपलब्धि बृहत्कथाकोश को यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होने देती। बृहत्कथाकोश में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों की उपलब्धि के प्रमाण प्रस्तुत ग्रन्थ के २३वें अध्याय में द्रष्टव्य हैं। अध्याय २४-छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी
__ ये तीनों दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ हैं, क्योंकि इनमें मुनियों के लिए वे ही २८ मूलगुण आवश्यक बतलाये गये हैं, जो दिगम्बरग्रन्थ 'प्रवचनसार' और 'मूलाचार' में निर्दिष्ट हैं। इनमें आचेलक्य प्रमुख मूलगुण है। यापनीयपरम्परा में यह मूलगुण नहीं माना गया है, क्योंकि इसके बिना भी इस परम्परा में मुनिपद की प्राप्ति एवं मुक्ति संभव बतलायी गयी है। छेदपिण्ड
छेदपिण्ड में मुनियों के लिए दिगम्बरमान्य २८ मूलगुणों का पालन अनिवार्य बतलाया गया है और अचेलव्रत को भंग करने पर प्रायश्चित्त का विधान करते हुए कहा गया है-"जो मुनि किसी के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर अथवा किसी रोग से ग्रस्त हो जाने पर अथवा दर्प के कारण गृहस्थ का अथवा अन्यतीर्थिक का लिंग (वेश) ग्रहणकर अचेलव्रत को भंग करता है, उसे क्रमशः 'खमण' (उपवास), 'षष्ठ' (छह भुक्तियों का त्याग) तथा 'मूल' नामक प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए।" (गाथा १२४-१२५)।
__ऐसे ही प्रायश्चित्त का विधान 'छेदपिण्ड' की ६१वीं और ६२वीं गाथाओं में भी किया गया है। यथा-"जो निर्ग्रन्थव्रतधारी एक बड़ी कौड़ी, छोटी कौड़ी या पाँच
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