SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थसार [एक सौ उन्यासी] उक्त सामग्री श्वेताम्बरग्रन्थों से गृहीत न होने के कारण प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयग्रन्थ नहीं है। २. यतः प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में प्रतिपादित विषय यापनीयमत-विरुद्ध है, अतः उसके टीकाकार प्रभाचन्द्र यापनीय नहीं हो सकते। ३. रात्रिभोजनविरमण को सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, विजयोदयाटीका आदि दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में भी छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। (देखिये, अध्याय १४/प्र.२/शी.७)। अतः उसके उल्लेख से प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार इस बात में सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं रहता कि प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। अध्याय २५–बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र डॉ० सागरमल जी जैन ने बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को केवल इसलिए यापनीयग्रन्थ माना है कि इसके अन्त में इति जिनकल्पिसूत्रं समाप्तम् लिखा है। उनके अनुसार यापनीयमत जिनकल्प (अचेललिंग) और स्थविरकल्प (सचेललिंग) में से जिनकल्प पर जोर देता था, उसी को सूचित करने के लिए यापनीय-आचार्य बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को 'जिनकल्पिसूत्र' नाम दिया है। डॉक्टर सा० की मान्यता है कि दिगम्बरपरम्परा में तो जिनकल्प और स्थविरकल्प मान्य ही नहीं है, अतः यह जिनकल्पिसूत्र दिगम्बरपरम्परा का नहीं है और श्वेताम्बरपरम्परा स्थविरकल्प को प्रधानता देती है, इसलिए वह श्वेताम्बरपरम्परा का भी नहीं है। (जै. ध. या. स./ पृ. २०७)। ___बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए डॉक्टर सा० द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त हेतु सर्वथा असत्य है। निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है १. दिगम्बरपरम्परा में भी जिनकल्प और स्थविरकल्प मान्य हैं, किन्तु दोनों अचेललिंगी हैं। अन्तर केवल तप में है। (देखिये, अध्याय २/प्र.३ / शी.३.२ एवं अध्याय १४/प्र.२ / शी.८)। तथापि बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को 'जिनकल्पिसूत्र' नाम श्वेताम्बरमान्य सचेल-स्थविरकल्प के प्रतिपक्षी अचेल-जिनलिंग की दृष्टि से दिया है। अर्थात् वे यह सूचित करना चाहते थे कि 'तत्त्वार्थसूत्र' जिनलिंगधारी (दिगम्बर) मुनियों के आचार का वर्णन करनेवाला ग्रन्थ है, सचेल-स्थविरकल्पी साधुओं के आचार का वर्णन करनेवाला नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy