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________________ २०५ २०७ २०८ १२ २१९ २२४ २२६ [चौदह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ १०. संयमसाधनभूत वस्त्रादि के मू हेतुत्व का निषेध ११. कषायादि के हेतु होते हुए भी वस्त्रादि के ग्रन्थत्व का निषेध २०६ १२. स्वर्ण और युवती के ग्रन्थत्व का निषेध १३. परीषहजय के आगमप्रसिद्ध अर्थ का अपलाप १४. 'यथाजातरूप' का हास्यास्पद अर्थप्ररूपण २१० तृतीय प्रकरण-वस्त्रादि संयम के साधक नहीं, घातक १. वस्त्रादिग्रहण देहसुखसाधनार्थ २१२ २. संयमध्यानादि की सिद्धि परीषहजय से २१७ ३. वस्त्रादिग्रहण इष्टराग-अनिष्टद्वेष का फल ४. वस्त्रपात्रादि-परिग्रह मूर्छा का फल ५. परीषह-पीड़ानिवारक वस्तुओं का उपभोग 'मूर्छा' का लक्षण ६. वस्त्रपात्रादि का संग मूर्छा का हेतु ७. वस्त्रपात्रादिसंग भय-कषायादि का हेतु ८. वस्त्रपरिभोग निर्जराविरोधी ९. मोक्षबाधक होने से ही तीर्थंकरों द्वारा वस्त्रत्याग २२७ १०. साधारण पुरुषों के लिए भी वस्त्रपात्रादि मोक्ष में बाधक - कर्मसिद्धान्त पक्षपातरहित ११. लौकिक वैद्य और आध्यात्मिक वैद्य में समानता नहीं २३२ १२. सवस्त्रमुक्ति संभव होने पर निर्वस्त्रता केवल क्लेश का कारण २३३ चतुर्थ अध्याय जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा प्रथम प्रकरण-वैदिकसाहित्य एवं संस्कृतसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनि १. ऋग्वेद में वातरशन मुनि, वृषभ, शिश्नदेव २. अथर्ववेद एवं ब्राह्मणग्रन्थों में यति और व्रात्य ३. तैत्तिरीयारण्यक में वातरशन श्रमण ४. निघण्टु (८०० ई. पू.) में श्रमण, दिगम्बर, वातवसन ५. महाभारत (५००-१०० ई. पू.) में नग्न क्षपणक ६. चाणक्यशतक (४०० ई. पू.) में नग्नक्षपणक २२९ २२९ २३९ २४० २४८ २४९ २५० २५१ २५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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