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अन्तस्तत्त्व
[तेरह] ३.४. आगम में 'अचेलक' शब्द से 'अचेलक' अर्थ ही अभीष्ट
१८० ३.५. प्राकृत-संस्कृत-भाषा-असम्मत वचन आप्तवचन नहीं १८० ३.६. सचेल की 'अचेल' संज्ञा गुणाश्रित नहीं।
१८१ ३.७. 'अचेलत्व' सचेल साधु का असाधारणधर्म नहीं ३.८. विपरीतार्थ और अयथार्थ शब्द का प्रयोग निष्प्रयोजन ३.९. सचेल के लिए अचेल-शब्द-व्यवहार शंका-विमोह-जनक १८२ ३.१०. साधुओं के लिए महामूल्य-वस्त्रधारण का उपदेश असंभव १८२ ३.११. 'नग्न' विशेषण के 'सर्वथा निर्वस्त्र' और 'अल्पवस्त्रयुक्त',
दो अर्थ असंभव ३.१२. सर्वसङ्करत्व-दोष की उत्पत्ति ३.१३. स्वमत को तीर्थंकरोपदिष्ट सिद्ध करने हेतु
'अचेलक' शब्द का विपरीतार्थ-प्ररूपण ४. लोक में भी सचेल के लिए 'नग्न' शब्द का व्यवहार अप्रसिद्ध - दोनों दृष्टान्त अप्रामाणिक
१८७ ४.१. रूढार्थ द्वारा मूलमुख्यार्थ का निरसन
१९० ४.२. नाग्न्यपरीषह के अयुक्तियुक्त होने का प्रसंग
१९२ ५. मलधारी हेमचन्द्रसूरि के मत की अयुक्तिमत्ता
- उपचरित 'नग्न' शब्द 'दरिद्रादि' अर्थ का प्रतिपादक १९२ ५.१. उपचार का अर्थ ५.२. उपचार के नियम
१९४ ५.३. उपचरित शब्द का मुख्यार्थ 'असत्य', अत एव अग्राह्य । ५.४. उपचरित शब्द से उपचरित अर्थ ग्राह्य ५.५. 'नग्न' शब्द के मुख्य और उपचरित अर्थ
१९७ ५.६. द्विविध नग्नत्व के आगमप्रमाण उपलब्ध नहीं
१९८ ५.७. लोकरूढ़ि एवं उपचार परस्परविरुद्ध ६. अचेलत्व के संयमादिघातक होने का उद्घोष
२०१ ७. वस्त्रादि के संयमसाधक होने का प्रतिपादन
२०२ ८. तीर्थंकर इसके अपवाद
२०४ ९. तीर्थंकरों की बराबरी करने का निषेध
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