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________________ ग्रन्थसार [एक सौ इकहत्तर] उसके बाद राजा अशोक की रोहिणी नामक महारानी होते हुए बतलाया गया है। तत्पश्चात् आर्यिकादीक्षा लेकर दुष्कर तप एवं सल्लेखनाविधि से देहत्याग करने पर वह देवगति एवं पुरुषवेद का बन्ध कर अच्युतस्वर्ग में दिव्यबुन्दीधर देव होती है। इस तरह वह सम्यग्दृष्टि देव की उस भूमिका में आ जाती है, जहाँ से च्युत होकर उसका मनुष्यगति में पुरुष होना अनिवार्य है। इससे उसके लिए दैगम्बरी दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त करने का द्वार खुल जाता है। (देखिये, अशोक-रोहिणी-कथानक / श्लोक ४५९-४६०, ४६५-४६६, ५८२-५८४)। इसी क्रम से रुक्मिणी के भी मोक्ष पाने का वर्णन बृहत्कथाकोश के 'लक्ष्मीमतीकथानक' (क्र. १०८/श्लोक १२४-१२६) में किया गया है। सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में स्त्रीपर्याय से पुरुषपर्याय प्राप्त करके ही मोक्ष होने का कथन है, किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त यापनीयपक्षधर विदुषी एवं विद्वान् ने क्रमतः शब्द की अनदेखी कर और पूतिगन्धा (रोहिणी) तथा रुक्मिणी के स्त्रीपर्याय को छोड़कर पुरुषपर्याय पाने के कथनों को ताक पर रखकर हल्ला मचाया है कि बृहत्कथाकोश में स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन है, इसलिए वह यापनीयग्रन्थ है। उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। २. हेतु-बृहत्कथाकोश में रुक्मिणी को तीर्थंकरगोत्र का बन्ध होना बतलाया गया है-'बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं' (लक्ष्मीमतीकथानक / क्र.१०८ / श्लोक १२५)। यह दिगम्बरमत के प्रतिकूल और श्वेताम्बर तथा यापनीय मतों के अनुकूल है। इससे सिद्ध है कि बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ है। निरसन-यह सत्य है कि स्त्री को तीर्थंकरनामकर्म के बन्ध का उल्लेख दिगम्बरमत के प्रतिकूल है, तथापि रुक्मिणी की मुक्ति स्त्रीपर्याय से न बतलाकर पुरुषपर्याय से बतलायी गयी है और भविष्य में उसके तीर्थंकर होने का भी कथन नहीं किया गया है। यह तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि रुक्मिणी के तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध का कथन या तो प्रक्षिप्त है अथवा सिद्धान्तग्रन्थों के गहन अनुशीलन के अभाव में हरिषेण ने अनभिज्ञतावश वैसा लिख दिया है। किन्तु उनके द्वारा स्त्रीपर्याय से मुक्ति का निषेध इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि बृहत्कथाकोश यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। ३. हेतु-अशोक-रोहिणी-कथानक (क्र.५७ / श्लोक ५८२) में रोहिणी महारानी के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग किये जाने का उल्लेख है। यह दिगम्बरमत के अनुकूल नहीं है, अपितु श्वेताम्बर और यापनीय मतों के अनुकूल है। अतः बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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