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________________ [एक सौ सत्तर] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ५. स्वयंभू सग्रन्थ अवस्था से भी मुक्ति के समर्थक नहीं हैं। 'पउमचरिउ' में सग्रन्थमुक्ति के उल्लेख का एक भी उदाहरण नहीं है। पुरुषों के द्वारा सर्वत्र निर्ग्रन्थदीक्षा लिये जाने का ही वर्णन है और निर्ग्रन्थ का अर्थ वस्त्ररहित ही बतलाया गया है। ६. 'पउमचरिउ' में कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव ने चौदह गुणस्थानों पर आरूढ़ होते हुए मोक्ष प्राप्त किया था तथा अपनी दिव्यध्वनि से भी गुणस्थानों का उपदेश दिया था। यह कथन श्वेताम्बर और यापनीय मतों के विरुद्ध है, क्योंकि उनमें गुणस्थानसिद्धान्त मान्य नहीं है। इन प्रमाणों से दो टूक निर्णय हो जाता है कि स्वयम्भूकृत पउमचरिउ दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। अध्याय २३-बृहत्कथाकोश यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का, जो यापनीयमत के सिद्धान्त हैं, स्पष्टतः निषेध किया गया है। (देखिये, अध्याय २३)। फिर भी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया और डॉ० सागरमल जी ने इस ग्रन्थ को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है, क्योंकि उनके अनुसार इसमें स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति का प्रतिपादन है। इसके समर्थन में उनके द्वारा उपस्थित किये गये हेतुओं का निरसन आगे किया जा रहा है १. हेतु-बृहत्कथाकोशगत 'अशोकरोहिणी-कथानक' (क्र.५७) के निम्नलिखित श्लोक में स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया है एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले। लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम्॥ २३५॥ अनुवाद-"इस विधि से जो पुरुष या स्त्री भक्तिपूर्वक रोहिणीव्रत (रोहिणी नक्षत्र में उपवास) का अनुष्ठान करती है, उसे क्रम से केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त होता है।" निरसन-यहाँ क्रमतः (क्रम से अर्थात् परम्परया) शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। इस शब्द का प्रयोग कर स्त्री की तद्भवमुक्ति का निषेध किया गया है और रोहिणीव्रत के अनुष्ठान द्वारा अर्जित पुण्य से स्वर्ग में देवपद की प्राप्ति तथा वहाँ से च्युत होकर मनुष्यभव में पुरुषपद प्राप्त कर संयम की साधना द्वारा मोक्ष प्राप्ति का कथन किया गया है। इसी वचन के अनुसार 'अशोक रोहिणी-कथानक' की नायिका पूतिगन्धा को पहले रोहिणीव्रत एवं श्राविकाव्रत के फलस्वरूप अच्युतस्वर्ग के देव की महादेवी और For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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