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________________ [एक सौ अड़सठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ निरसन-दिगम्बराचार्य रविषेण ने पद्मपुराण की रचना श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के पउमचरिय के आधार पर की है, अतः उन्होंने भूल से आचार्य प्रभव का भी उल्लेख कर दिया है। और स्वयम्भू को रामकथा की प्राप्ति रविषेण से हुई है, अतः उन्होंने भी रविषेण का अनुकरण कर आचार्य प्रभव का नाम रख दिया है। किन्तु इससे वे यापनीय सिद्ध नहीं होते, क्योंकि उन्होंने 'पउमचरिउ' में स्त्रीमुक्ति-निषेध, सवस्त्रमुक्ति-निषेध आदि यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। (देखिये, अध्याय २२ / प्र. १)। ४. हेतु-स्वयम्भू ने भगवान् के चलने पर पैरों के नीचे देवनिर्मित कमलों के रखे जाने को एक अतिशय बताया है-'पण्णारहकमलायत्त-पाउ' (१,७/४) यह भी श्वेताम्बरमान्यता है, जो पउमचरिउ के यापनीय होने की सूचक है। निरसन-भगवान् का देवनिर्मित कमलों के ऊपर चलना दिगम्बरों में भी मान्य है। स्वामी समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा के 'देवागमनभोयान' इस प्रथम श्लोक की टीका में आचार्य वसुनन्दी लिखते हैं-"नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं नभोयानम्।" अतः 'पउमचरिउ' में इसका उल्लेख उसके यापनीयग्रन्थ होने का सूचक नहीं है। ५. हेतु-तीर्थंकर का मागधी भाषा में उपदेश देना श्वेताम्बर-मान्यता है। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार समवशरण में तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरती है, जो सर्वभाषारूप होती है। पउमचरिउ में तीर्थंकर के मागधी भाषा में उपदेश देने की श्वेताम्बरमान्यता का उल्लेख उसके यापनीयग्रन्थ होने का लक्षण है। निरसन-दिगम्बरपरम्परा में भी तीर्थंकर के द्वारा मागधी भाषा में उपदेश दिये जाने का कथन उपलब्ध होता है। (देखिये, श्रुतसागरटीका / दंसणपाहुड / गा.३५)। अतः 'पउमचरिउ' में इसका उल्लेख श्वेताम्बरमान्यता का उल्लेख सिद्ध नहीं होता। ६. हेतु-'पउमचरिउ' में यक्षराक्षसादि का रात्रिभोजन, १६वें स्वर्ग में स्थित सीता का तीसरी पृथ्वी (नरक) तक गमन, भगवान् अजितनाथ को म्लान कमल के दर्शन से वैराग्य होना, भगवान् महावीर के द्वारा चरणाग्र से मेरु का कम्पित किया जाना, इत्यादि बातों का उल्लेख दिगम्बरमान्यता के विरुद्ध है। अतः वह यापनीयग्रन्थ है। निरसन-ये मान्यताएँ दिगम्बरमत के विरुद्ध अवश्य हैं, किन्तु ये यापनीयमान्यताएँ हैं, इसका कोई प्रमाण नहीं है। अतः इनके उल्लेख से पउमचरिउ यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। इसके अतिरिक्त पउमचरिउ में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीयमान्यताओं का निषेध है, जिससे उसके यापनीयग्रन्थ न होकर दिगम्बरग्रन्थ होने में सन्देह के लिए स्थान नहीं रहता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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