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________________ ग्रन्थसार [एक सौ सड़सठ] ऐसी बातों का उल्लेख होना बतलाया है, जो दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं, और उन्हें ही यापनीय-सिद्धान्त मान लिया है, जब कि उनके यापनीयसिद्धान्त होने का कोई प्रमाण नहीं है। डॉ० सागरमल जी ने श्रीमती पटोरिया द्वारा प्रस्तुत हेतुओं के आधार पर ही 'पउमचरिउ' को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, एक-दो हेतु अपनी तरफ से भी जोड़े हैं। श्रीमती पटोरिया द्वारा बतलाये गये प्रमुख हेतु और उनका निरसन नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है १. हेतु-पउमचरिउ में राम के लिए प्रयुक्त पद्म नाम दिगम्बरपरम्परानुसारी नहीं है। अतः उनके लिए 'पद्म' नाम का प्रयोग करनेवाले रविषेण और स्वयंम्भू यापनीयपरम्परा के सिद्ध होते हैं। निरसन-दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में पद्म और राम भिन्न-भिन्न बलदेवों के नाम हैं। स्वयं श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि ने पद्म और राम को एक-दूसरे से भिन्न बतलाया है, फिर भी उन्होंने राम के लिए 'पद्म' नाम का प्रयोग किया है और दिगम्बराचार्य रविषेण तथा स्वयम्भू ने भी ऐसा ही किया है। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद से पहले जैनपरम्परा में 'पद्म' नाम भी राम के लिए प्रसिद्ध था। यतः यह नाम राम के लिए दिगम्बर-श्वेताम्बर, दोनों परम्पराओं में प्रयुक्त हुआ है, अतः यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म नहीं है। फलस्वरूप यह 'पउमचरिउ' के यापनीय-ग्रन्थ होने का हेतु नहीं है। २. हेतु-देवकी के तीन युगलों के रूप में छह पुत्र कृष्ण के जन्म से पूर्व हुए थे, जिन्हें हरिणेगमेसि देव ने सुलसा गाथापत्नी के पास स्थानान्तरित कर दिया था। स्वयंभू के रिट्टनेमिचरिउ का यह कथानक श्वेताम्बर-आगम अन्तकृतदशा में यथावत् उपलब्ध होता है। स्वयम्भू द्वारा श्वेताम्बर-आगम का यह अनुसरण उन्हें यापनीय सिद्ध करता है। (जै. ध. या. स. / पृ. १८२)। निरसन-जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश तथा गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, ये तीनों दिगम्बरग्रन्थ हैं। इनमें भी नैगमदेव का देवकी-पुत्रों के रक्षकरूप में उल्लेख है। अतः इसका उल्लेख होना श्वेताम्बरग्रन्थ का आसाधारणधर्म नहीं है। इसलिए स्वयम्भू-कृत 'रिट्ठणेमिचरिउ' में इसका उल्लेख होना उसके यापनीयग्रन्थ होने का हेतु नहीं है। ३. हेतु-स्वयम्भू ने 'पउमचरिउ' के कथास्रोत का उल्लेख करते हुए क्रमशः महावीर, गौतम, सुधर्म, प्रभव, कीर्ति और रविषेण का उल्लेख किया है। यहाँ श्वेताम्बराचार्य प्रभव को स्थान देना इस मत की पुष्टि करता है कि स्वयंभू यापनीय थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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