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[ एक सौ छियासठ ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
इस प्रकार हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए रखे गये सभी हेतु निरस्त हो जाते हैं। अब वे प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराण सर्वथा दिगम्बरग्रन्थ है
१. हरिवंशपुराण में यापनीयों को मान्य स्त्रीमुक्ति, आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले प्रचुर उल्लेख मिलते हैं।
२. भाववेदत्रय और वेदवैषम्य को स्वीकार करते हुए भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों से, किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा केवल पुंल्लिङ्ग से ही मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है। यह यापनीयमत के विरुद्ध है।
३. आम्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग अनिवार्य बतलाया गया है, कल्पों की संख्या सोलह तथा अनुदिश नामक नौ स्वर्ग भी स्वीकार किये गये हैं। तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध की हेतुभूत सोलह भावनाएँ ही वर्णित हैं, बीस नहीं। इसी प्रकार के और भी अनेक यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों का निरूपण हरिवंशपुराण में उपलब्ध होता है।
४. हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने अपने को दिगम्बरगुरुपरम्परा से सम्बद्ध बतलाया है।
५. दिगम्बर-ग्रन्थकारों का ही गुणकीर्तन किया है ।
६. हरिवंशपुराण की विषयवस्तु दिगम्बराचार्य - रचित ग्रन्थों से अनुकृत की गयी है।
अध्याय २२ - स्वयम्भूकृत पउमचरिउ
पं० नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि पुष्पदन्त ने महापुराण के स्वयंभू शब्द के टिप्पण में स्वयंभू को आपुलीसंघीय बतलाया है, इसलिए वे यापनीयसम्प्रदाय के अनुयायी जान पड़ते हैं । श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया का कथन है- " श्री एच० सी० भायाणी भी लिखते हैं कि यद्यपि इस सन्दर्भ में हमें स्वयंभू की ओर से कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष वक्तव्य नहीं मिलता है, परन्तु यापनीय सग्रन्थ-अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति स्वीकार करते थे और स्वयंभू अधिक उदारचेता थे, अतः इन्हें यापनीय माना जा सकता है।"
श्रीमती पटोरिया ने 'पउमचरिउ' को यापनीयकृति सिद्ध करने लिए उसमें यापनीयमत के किसी भी मौलिक सिद्धान्त का उल्लेख होना नहीं बतलाया, केवल
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