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________________ ग्रन्थसार [एक सौ पैंसठ] निरसन-दगम्बरसम्प्रदाय में भगवान् ऋषभदेव के समय से ही आर्यिकादीक्षा की परम्परा चली आ रही है। हरिवंशपुराण में कृष्ण की आठों पटरानियों की आर्यिकादीक्षा का वर्णन है, किन्तु उनमें से किसी की भी स्त्रीपर्याय से मुक्ति नहीं बतलायी गयी है। सबके विषय में यह कहा गया है कि वे अगले भव में देव होंगी, तत्पश्चात् मनुष्यभव में पुरुष होकर मोक्ष प्राप्त करेंगी। (हरिवंशपुराण/६०/५३-५४)। यह कथन हरिवंशपुराण को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करता है। ८. हेतु-हरिवंशपुराण के उल्लेखानुसार नन्दिषेण मुनि रुग्णमुनि का वेश धारण करके आये हुए देव को उसका मनोवांछित भोज़न लाकर देते हैं। यह आचरण दिगम्बरमुनि के अनुकूल न होकर श्वेताम्बरमुनि के अनुकूल है। अतः श्वेताम्बरपरम्परा को मानना हरिवंशपुराण के यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। निरसन-हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध, सवस्त्रमुक्तिनिषेध जैसे यापनीयमतविरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इससे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। अतः परिस्थिति-विशेष में किसी मुनि के द्वारा रुग्ण मुनि के लिए आहार लाकर दिया जाना या दिलाया जाना दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है। (देखिये, अध्याय २१ / प्र.२ / शी.८)। ९. हेतु-हरिवंशपुराण में नारद को दो स्थानों पर चरमशरीरी कहा गया है। नारद को चरमशरीरी अथवा स्वर्गगामी मानना श्वेताम्बर-आगमिक-परम्परा है। चूंकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को स्वीकार करते थे, अतः हरिवंशपुराण यापनीयग्रन्थ सिद्ध होता है। निरसन-यद्यपि नारद के चरमशरीरी होने का कथन दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध है, तथापि हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी यापनीयसिद्धान्तों का निषेध है, जिससे यह सुनिश्चित है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। १०. हेतु-हरिवंशपुराण के अनुसार नरक में विद्यमान श्रीकृष्ण का जीव सम्यग्दृष्टि होते हुए भी सम्यग्दृष्टि बलदेव के जीव से भरतक्षेत्र में कृष्ण और बलदेव की पूजा का प्रचार करने के लिए कहता है। बलदेव का जीव वैसा ही करता है। यह सम्यग्दर्शन के प्रतिकूल होने से हरिवंशपुराण के यापनीयग्रन्थ होने की पुष्टि करता है। निरसन-यद्यपि श्रीकृष्ण के मुख से उक्त कथन कराया जाना दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल नहीं है, तथापि हरिवंशपुराण में प्रतिपादित सभी सिद्धान्त यापनीयमतविरोधी हैं, जैसे स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का निषेध। इसलिए इस तथ्य में सन्देह के लिए रंचमात्र भी अवकाश नहीं है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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