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________________ [एक सौ चौंसठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ९)। इस कथन से स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन भगवान् महावीर के विवाह की मान्यता के विरोधी हैं, अतः वे यापनीय नहीं है। ३. हेतु-हरिवंशपुराण में सग्रन्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के भी निर्देश प्राप्त होते हैं। निरसन-यह कथन सर्वथा मिथ्या है। प्रमाण के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ के २१वें अध्याय में प्रथम प्रकरण के शीर्षक १ से ४ दर्शनीय हैं। ४. हेतु-हरिवंशपुराणकार ने ग्रन्थ के आरंभ में समन्तभद्र, देवनन्दी आदि दिगम्बराचार्यों के साथ सिद्धसेन आदि श्वेताम्बर तथा इन्द्र (नन्दी), वज्रसूरि, रविषेण, वराङ्ग आदि यापनीय आचार्यों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन उदार यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे। निरसन-इनमें से न तो सिद्धसेन श्वेताम्बर थे, न ही वराङ्गचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी तथा इन्द्र, वज्रसूरि, रविषेण आदि यापनीय थे। ये सभी दिगम्बर थे। यह प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्याय क्र. १८, १९ एवं २० में सिद्ध किया गया है। अतः हरिवंशपुराणकार को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया उपर्युक्त हेतु असत्य ५. हेतु-हरिवंशपुराण में आर्यिकाओं का स्पष्टरूप से उल्लेख मिलता है। आर्यिकासंघ की व्यवस्था भी यापनीय है। निरसन-दिगम्बरपरम्परा में भी आर्यिकासंघ की व्यवस्था है। (देखिये, अध्याय २१/प्र.२/ क्र.५)। ६. हेतु-हरिवंशपुराण में श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के भेदों का उल्लेख है। श्वेताम्बरों के अतिरिक्त यापनीय ही इन ग्रन्थों को प्रमाण मानते थे। अतः हरिवंशपुराणकार यापनीय सिद्ध होते हैं। निरसन-श्रुत के ये भेद दिगम्बरपरम्परा में भी प्रमाण माने गये हैं। हरिवंशपुराण में इनके नामों का उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार न होकर दिगम्बरपरम्परा के तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवलाटीका आदि के अनुसार हआ है। इससे सिद्ध है कि हरिवंशपुराण दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है। (देखिये, अध्याय २१/प्र.१/शी.८/ क्र.४)। ७. हेतु-हरिवंशपुराण के ६०वें सर्ग में कृष्ण की आठों पटरानियों-सहित अनेक स्त्रियों के दीक्षित होने का उल्लेख है, जो उसके यापनीयग्रन्थ होने की संभावना को पुष्ट करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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