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ग्रन्थसार
[एक सौ तिरसठ] ५. वरांगचरित में स्वतंत्र काल द्रव्य की सत्ता स्वीकार की गई है, जब कि यापनीय-मान्य श्वेताम्बर-आगम उसे अमान्य करते हैं।
६. वरांगचरित में चौदह गुणस्थानों का कथन है। यह सिद्धान्त यापनीयों की गृहस्थमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है।
७. वरांगचरित में दिगम्बरमत के अनुरूप प्रथमानुयोग शब्द का प्रयोग किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में उसके स्थान पर धर्मकथानुयोग शब्द प्रयुक्त हुआ है।
८. वरांगचरित में वेदत्रय की स्वीकृति है, जब कि यापनीयमत केवल एक ही वेदसामान्य मानता है। अध्याय २१-हरिवंशपुराण
श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन के हरिवंशपुराण पर भी यापनीयसम्प्रदाय की मुद्रा अंकित कर दी है
और निम्नलिखित हेतुओं से इसकी पुष्टि का प्रत्यत्न किया है, जो सब निरस्त हो जाते हैं
१. हेतु-बृहत्कथाकोशकार हरिषेण पुन्नाटसंघी थे। उन्होंने कथाकोश में स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख किया है, अतः उन्हें यापनीय होना चाहिए। हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन भी पुन्नाटसंघी थे, अतः इन्हें भी यापनीय ही होना चाहिए।
निरसन-जिनसेन और हरिषेण दोनों ने क्रमशः अपने हरिवंशपुराण एवं बृहत्कथाकोश में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि यापनीयसिद्धान्तों का निषेध किया है, अतः दोनों यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे। अतः उनका पुन्नाटसंघ भी दिगम्बरों का ही संघ था, यापनीयों का नहीं। (देखिये, अध्याय २१ / प्र. १ तथा अध्याय २३ / शी.१-३)।
२. हेतु-हरिवंशपुराण के कथनानुसार राजा सिद्धार्थ के भगिनीपति राजा जितशत्रु कुमार महावीर के साथ अपनी कन्या यशोदा का विवाह करना चाहते थे। इससे भी हरिवंशपुराणकार का यापनीय होना सिद्ध होता है।
निरसन-हरिवंशपुराणकार ने राजा जितशत्रु के मन की इच्छा सूचित कर अपनी ओर से कहा है-"परन्तु कुमार महावीर तप के लिए चले गये और केवलज्ञान प्राप्त कर जगत् के कल्याण के लिए पृथ्वी पर विहार करने लगे।" (हरिवंशपुराण ६६/८
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