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________________ [ एक सौ बासठ ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ८. हेतु - वरांगचरित में श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के 'पउमचरियं' का अनुकरण किया गया है। यह वरांगचरित के यापनीयग्रन्थ होने का प्रमाण है । निरसन - वरांगचरित में ईसा की पाँचवीं शती में हुए श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के पउमचरियं का नहीं, अपितु ईसापूर्वोत्तर प्रथम शती में हुए आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण किया गया है । (देखिये, अध्याय २० / प्र.२ / शी. ७) । ९. हेतु - कल्पों की संख्या बारह मानी गयी है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता है । निरसन — दिगम्बरपरम्परा में भी कल्पों की संख्या बारह और सोलह दोनों मानी गयी है। (देखिये, अध्याय १७ / प्र. १ / शी. ८) । अतः उपर्युक्त हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है। १०. हेतु - वरांगचरित में जन्मना वर्णव्यवस्था का निषेधकर कर्मणा वर्णव्यवस्था मानी गयी है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में जन्मना वर्णव्यवस्था मान्य है । इससे जटासिंहनन्दी यापनीय सिद्ध होते हैं । निरसन - दिगम्बरपरम्परा में भी कर्मणा वर्णव्यवस्था मानी गयी है, जन्मना नहीं । अतः जटासिंहनन्दी को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है । (देखिये, अध्याय २० / प्र.२ / शी. ९) । इन समस्त हेतुओं के निरसन के बाद वे प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वरांगचरित दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ हैं १. वरांगचरित में केवलिभुक्ति, वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं अन्यलिंगिमुक्ति का निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के आधारभूत सिद्धान्त हैं । २. वरांगचरित में महावीर के विवाह की मान्यता भी अस्वीकार की गई है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों में महावीर के विवाह होने की बात कही गई है। ३. वरांगचरित में जो पाँच महाव्रतों की भावनाएँ वर्णित हैं, वे दिगम्बर - आगमों का अनुसरण करती हैं और यापनीयमान्य श्वेताम्बर - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में वर्णित भावनाओं से भिन्न हैं । ४. वरांगचरित में मुनि के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। यह सिद्धान्त यापनीयों द्वारा मान्य वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति के विरुद्ध है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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