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[एक सौ साठ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ २. वस्त्रमात्र-परिग्रहधारी गृहत्यागी पुरुष को 'क्षुल्लक' संज्ञा दी गयी है और इस तरह स्पष्ट किया गया है कि ऐसा पुरुष 'मुनि' संज्ञा का पात्र नहीं है।
३. यापनीयों को मान्य गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है।
४. सोलह कल्प स्वीकार किये गये है, चार अनुयोगों के नाम दिगम्बरमतनुसार वर्णित हैं, आहारदान की विधि दिगम्बर-परम्परानुसार बतलायी गयी हैं, दाता के यहाँ पंचाश्चर्य किये जाने का कथन है, जो दिगम्बरपरम्परा का अनुसरण है।
ये समस्त तथ्य यापनीयमत के विरुद्ध हैं। ये इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि रविषेणकृत पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। अध्याय २०-वराङ्गचरित
डॉ० सागरमल जी ने जटासिंहनन्दि-कृत 'वराङ्गचरित' को भी यापनीयसम्प्रदाय के खाते में डाल दिया है और निम्नलिखित हेतुओं से इसकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया है, जो सभी निरस्त हो जाते हैं
. १. हेतु-वरांगचरित (२३ / २९) में वस्त्रान्नदानं श्रवणार्यिकाभ्यः इन शब्दों से कहा गया है कि राजा वरांग ने श्रावकों (श्रवणों) और आर्यिकाओं को वस्त्र और आहार का दान किया। यहाँ प्रूफ की अशुद्धि से 'श्रमण' शब्द के स्थान में 'श्रवण' छप गया है, ऐसी कल्पना कर डॉ० सागरमल जी ने कहा है कि इस श्लोक में श्रमणों को वस्त्रदान का कथन है, जिससे सिद्ध है कि यह ग्रन्थ साधुओं के सवस्त्र अपवादलिंग को मान्यता देता है, अतः यापनीय-सम्प्रदाय का है।
निरसन-श्रवणार्यिकाभ्यः में प्रूफ की अशुद्धि नहीं है, अपितु 'श्रवण' शब्द का ही प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है श्रावक। उक्त श्लोक में जिनालय के निर्माण आदि में सहयोग करनेवाले श्रावकों को वस्त्रान्नदान का कथन किया गया है, श्रमणों को नहीं। अतः इसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया हेतु मिथ्या है।
२. हेतु-वरांगचरित (२९/९३-९४) में राजा वरांग की वरंगियों (वराङ्ग्य: सुन्दर रानियों) की आर्यिकादीक्षा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वरांगियों ने सुन्दर आभूषण त्याग दिये और श्वेत-शुभ वस्त्र धारणकर जिनेन्द्रमार्ग में अभिरत हो गयीं। यहाँ रानियों के वाचक वराङ्ग्यः पद को राजा वरांग का वाचक मानकर डॉ० सागरमल जी ने तर्क दिया है कि 'वरांगचरित' में राजा वरांग मुनिदीक्षा गहण करते समय श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। यापनीयपरम्परा में मुनिदीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा आदि के
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