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________________ ग्रन्थसार [एक सौ उनसठ] आरम्भ में प्रभवस्वामी के स्थान में जम्बूस्वामी का नाम रखना भूल गये। यह भूल उन्होंने पद्मपुराण (भाग ३) के अन्त में सुधार ली है। अतः उनके यापनीय होने की संभावना निरस्त हो जाती है। ३. हेतु-रविषेण ने दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित गुणभद्रवाली कथा न अपनाकर श्वेताम्बर विमलसूरि-प्रणीत कथा अपनायी है। इससे उनके यापनीय होने की पुष्टि होती है। निरसन-रविषेण ने पद्मपुराण में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, यह इस बात का अखण्ड्य प्रमाणः है कि वे यापनीयपरम्परा के नहीं, बल्कि दिगम्बरपरम्परा के हैं। उन्होंने श्वेताम्बर विमलसूरि-प्रणीत कथा का दिगम्बरीकरण किया है, यह उनके दिगम्बर होने का स्पष्ट प्रमाण है। ४. हेतु-रविषेण की कथा को यापनीय स्वयम्भू द्वारा अपनाया जाना भी रविषेण को यापनीय मानने का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। निरसन–'पउमचरिउ' के कर्ता स्वयम्भू यापनीय नहीं, दिगम्बर थे, इसके प्रमाण द्वाविंश अध्याय में अवलोकनीय हैं। ५. हेतु-रविषेण के पद्मपुराण में कई उल्लेख दिगम्बर-परम्परा के विपरीत हैं, जैसे गन्धर्वदेवों को मद्यपी तथा यक्ष-राक्षसादि को कवलाहारी मानना। इससे भी उनके यापनीय होने का विश्वास होता है। निरसन-ये मान्यताएँ यापनीयमत की हैं, यह तो तभी कहा जा सकता है, जब किसी यापनीयग्रन्थ में उपलब्ध हों। यापनीयपरम्परा के तीन ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं-'स्त्रीनिर्वाणप्रकरण', 'केवलिभुक्तिप्रकरण' एवं 'शाकटायन-व्याकरण।' इनमें उपर्युक्त मान्यताएँ उपलब्ध नहीं हैं। और पद्मपुराण यापनीयग्रन्थ नहीं है, यह उसमें प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से सिद्ध है। अतः उपर्युक्त मान्यताएँ दिगम्बरमत के विरुद्ध अवश्य हैं, पर वे यापनीयमत की हैं, यह सिद्ध नहीं होता। अतः यही निर्णीत होता है कि हरिषेण ने दिगम्बर होते हुए भी लोक-मान्यताओं और इतर सम्प्रदायों की मान्यताओं से प्रभावित होकर उनका समावेश पद्मपुराण में कर दिया है। ___ इस तरह पद्मपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त पाँचों हेतु मिथ्या हैं। इसके विपरीत निम्नलिखित हेतु सिद्ध करते हैं कि हरिषेणकृत पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ है १. पद्मपुराण में एकमात्र दिगम्बरलिंग को ही मुनिलिंग बतलाया गया है, वस्त्रपात्रादिधारी साधुओं को कुलिंगी कहकर यापनीयमान्य सवस्त्र अपवादलिंग अस्वीकार किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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