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________________ [एक सौ अट्ठावन] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ - सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के यापनीयत्व का निरसन डॉ० ए० एन० उपाध्ये और उनका अनुसरण करनेवाली श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को यापनीयपरम्परा का सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत सभी हेतु हेत्वाभास हैं, अतः यह सिद्ध नहीं होता कि वे यापनीयपरम्परा के थे। उनके द्वारा प्रस्तुत हेतु और उनका निरसन अष्टादश अध्याय के सप्तम प्रकरण में दर्शनीय है। - उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य होने का निरसन ___ डॉ० सागरमल जी ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को न श्वेताम्बर माना है, न यापनीय, अपितु स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का आचार्य बतलाया है। किन्तु द्वितीय अध्याय के तृतीय प्रकरण में सिद्ध किया गया है कि इस संघ या परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था। इसलिए सन्मतिसूत्रकार एक अस्तित्वहीन परम्परा के आचार्य नहीं हो सकते। अध्याय १९-रविषणकृत पद्मपुराण आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण (पद्मचरित) को मूलतः श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने और उनसे प्रेरणा पाकर डॉ. सागरमल जी ने यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ घोषित किया है। श्रीमती पटोरिया द्वारा प्रस्तुत हेतु एवं उनका निरसन नीचे द्रष्टव्य हैं १. हेतु-रविषेण ने अपनी गुरुपरम्परा में 'इन्द्र' का उल्लेख किया है। यापनीयआचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने भी अपने शाकटायनसूत्र-पाठ में 'इन्द्र' के मत की चर्चा की है। इससे सिद्ध होता है कि इन्द्र यापनीय हैं, अतः उनके प्रशिष्य रविषेण भी यापनीय हैं। निरसन-पद्मपुराण में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों के प्रतिपादन से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। अतः उसके कर्ता रविषेण भी यापनीय नहीं हैं। इसलिए उनके इन्द्र, दिवाकरयति आदि गुरुओं का भी यापनीय होना असंभव है। २. हेतु-रविषेण ने रामकथा की परम्परागतता पर प्रकाश डालते हुए सुधर्मा के बाद श्वेताम्बरपरम्परा के प्रभवस्वामी को उसका प्राप्त होना बतलाया है। यह उनके यापनीय होने का लक्षण है। निरसन-रविषेण ने पद्मपुराण की रचना श्वेताम्बर विमलसूरि के 'पउमचरिय' के आधार पर की है। उन्होंने 'पउमचरिय' का दिगम्बरीकरण किया है, किन्तु वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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