SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थसार [एक सौ सत्तावन] यह विशेषण उनकी जैनसिद्धान्तविरोधी मान्यताओं के कारण उनके ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान् के द्वारा दिया गया जान पड़ता है, अतः यह १९वीं द्वात्रिंशिका किसी श्वेताम्बर सिद्धसेन की है। ३. इक्कीसवीं द्वात्रिंशिका भी किसी श्वेताम्बर सिद्धसेन द्वारा रचित है। (अध्याय १८/प्र.१/ शी.४)। उपसंहार करते हुए मुख्तार जी लिखते हैं कि प्रथमादि पाँच द्वात्रिंशिकाओं को (उपयोग-युगपद्वादी) दिगम्बर सिद्धसेन की, १९वीं तथा २१वीं द्वात्रिंशिकाओं को श्वेताम्बर सिद्धसेन की और शेष द्वात्रिंशिकाओं को दोनों में से किसी भी सम्प्रदाय के सिद्धसेन की अथवा दोनों ही सम्प्रदायों के सिद्धसेनों की अलग-अलग कृति कहा जा सकता है। (अध्याय १८ / प्र.१ / शी.१०)। ङ-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि पंचम द्वात्रिंशिका (३६) में यशोदा के साथ भगवान् महावीर के विवाह का उल्लेख है, जिससे सिद्ध होता है कि सिद्धेसन श्वेताम्बर थे। (जै.ध.या.स./ पृ.२२८)। किन्तु 'पञ्चम द्वात्रिंशिका' में उपयोग-युगपद्वाद का प्रतिपादन है, जो सन्मतिसूत्रकार के उपयोग-अभेदवाद के विरुद्ध है। अतः वह उनकी कृति नहीं है। इसलिए उसमें महावीर के विवाह का उल्लेख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन श्वेताम्बर थे। (अध्याय १८/ प्र.२)। . डॉ० सागरमल जी ने और भी अनेक हेत्वाभासों के द्वारा पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के निर्णयों का विरोध किया है। उनका निरसन अष्टादश अध्याय के द्वितीय प्रकरण में द्रष्टव्य है। च-सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का समय-सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में छठी शती ई० (वि० सं० ५६२) के नियुक्तिकार भद्रबाहु-द्वितीय द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवाद का खण्डन किया है और सिद्धसेन के उपयोग-अभेदवाद का खण्डन ७ वीं शती ई० (विक्रम की ७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध) के भट्ट अकलंकदेव ने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में और इसी समय के जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने 'विशेषावश्यकभाष्य' (वि० सं० ६६६) में किया है। अतः सन्मतिसूत्रकार का समय ईसा की छठी और सातवीं सदी का मध्य है (अध्याय १८/ प्र.१/ शी.६,७)। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्रव्याकरण में जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया है, वे सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नहीं हैं, अपितु तीसरी और नौवीं द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन हैं। वे पूज्यपाद देवनन्दी से पहले हुए हैं। किन्तु उनसे पहले उपयोगद्वय के क्रमवाद तथा अभेदवाद के कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, हुए होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धि में सनातन से चले आये युगपद्वाद का प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते, बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादों का खण्डन जरूर करते। (अध्याय १८ / प्र. १ / शी.७.१)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy