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[एक सौ छप्पन]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ७. नियमसार' की तात्पर्यवृत्ति में पद्मप्रभमलधारिदेव ने उक्त सिद्धसेन की वन्दना करते हुए उन्हें सिद्धान्त का ज्ञाता और प्रतिपादन-कौशल-रूप उच्चश्री का स्वामी सूचित किया है। इसके अतिरिक्त प्रतापकीर्ति ने आचार्यपूजा के प्रारंभ में दी हुई गुर्वावली में तथा मुनि कनकामर ने करकंडुचरिउ में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की अत्यन्त प्रशंसा की है।
८. पद्मपुराणकार रविषेण ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को इन्द्रगुरु का शिष्य, अर्हन्मुनि का गुरु और रविषेण के गुरु लक्ष्मणसेन का दादा गुरु अर्थात् अपना परदादागुरु कहा है।
९. दिगम्बर-सेनगण की पट्टावली में भी उक्त सिद्धसेन के विषय में उज्जयिनी के महाकाल-मन्दिर में लिंगस्फोटनादि-सम्बन्धी घटना का उल्लेख मिलता है।
१०. इन हेतुओं में एक हेतु मैं भी जोड़ देना चाहता हूँ, वह यह कि दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दी ने 'वरांगचरित' में सन्मतिसूत्र की अनेक गाथाओं को संस्कृत पद्यों में रूपान्तरित किया है।
ये हेतु सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को दिगम्बराचार्य सिद्ध करनेवाले दृढ़ प्रमाण हैं। (अध्याय १८ / प्र.१)।
घ-द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ३२-३२ पद्यों की ३२ कृतियों का संग्रह है, जिनमें से २१ उपलब्ध हैं।
१. इनमें से पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में युगपद्वाद (केवली के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के युगपद् होने का मत) स्वीकार किया गया है। अतः इनके कर्ता उपयोग-अभेदवादी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नहीं हो सकते। (अध्याय १८/ प्र.१/ शी.५.२)। ये किसी अन्य दिगम्बर सिद्धसेन की कृतियाँ हैं।
२. उन्नीसवीं निश्चयद्वात्रिंशिका एकोपयोगवाद-विरोधी और युगपद्वादी है, अतः एकोपयोगवादी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति नहीं है। इसके अतिरिक्त इसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान में अभेद माना गया है। दर्शनज्ञान-चारित्र को पृथक्-पृथक् मोक्षमार्ग स्वीकार किया गया है तथा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों का अस्तित्व भी अमान्य किया गया है। ये मान्यताएँ भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की मान्यताओं के विरुद्ध हैं। अतः इस 'निश्चयद्वात्रिंशिका' के कर्ता कोई और सिद्धसेन हैं। (अध्याय १८ / प्र.१ / शी.५.३ से ५.८)।
उक्त 'निश्चयद्वात्रिंशिका' के अंत में उसके कर्ता सिद्धसेन को द्वेष्य-श्वेतपट विशेषण दिया गया है, जिसका अर्थ है द्वेषयोग्य (शत्रु माने जाने योग्य) श्वेताम्बर।
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