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________________ [ एक सौ पचपन ] 'प्राग्भारसम्भृत-नभांसि रजांसि रोषात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं, जो पार्श्वनाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बरमान्यता के अनुकूल और श्वेताम्बरमान्यता के प्रतिकूल हैं । कारण यह है कि श्वेताम्बरीय आचारांगनिर्युक्ति में वर्द्धमान को छोड़कर शेष २३ तीर्थंकरों के तपःकर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया गया है। इससे उपलब्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्र दिगम्बरकृति सिद्ध होता है। (अध्याय १८ / प्र.१ / शी. ३)। ग्रन्थसार ख - मुख्तार जी ने न्यायावतार के कर्त्ता सिद्धसेन को श्वेताम्बर माना है, क्योंकि उनकी दिगम्बर - सम्प्रदाय में मान्यता नहीं है और 'न्यायावतार' पर किसी दिगम्बर की टीका भी नहीं मिलती, जब कि उस पर श्वेताम्बरों के अनेक टीका-टिप्पण उपलब्ध होते हैं । (अध्याय १८ / प्र.१ / शी. १०) । ग - सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन को मुख्तार जी ने निम्नलिखित हेतुओं के आधार पर दिगम्बर जैनाचार्य सिद्ध किया है १. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन ने श्वेताम्बर - आगमों की उपयोगद्वय-विषयक क्रमवाद (केवली के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के क्रमशः होने) की मान्यता का सन्मति - सूत्र में जोरदार खण्डन किया है और उपयोग - अभेदवाद या एकोपयोगवाद (केवली के उपयोग में दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग का भेद न होने) की सिद्धि की है, जो दिगम्बरमान्य यौगपद्यवाद (केवली के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के क्रमशः न होकर एक साथ होने की मान्यता) के निकट है। २. श्वेताम्बराचार्यों ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की अभेदवादी मान्यता की कटु आलोचना की है और उनके प्रति अनादरभाव प्रकट किया है, जब कि दिगम्बरसाहित्य में सर्वत्र उनका सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया है। ३. दिगम्बरसम्प्रदाय में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को सेनगण (संघ) का आचार्य माना गया है और सेनगण की पट्टावली में उनका उल्लेख है । ४. हरिवंशपुराणकार दिगम्बराचार्य जिनसेन ने पुराण के अन्त में अपनी गुर्वावली में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के नाम का उल्लेख किया है और आरंभ में उनकी सूक्तियों को भगवान् वृषभदेव की सूक्तियों के तुल्य बतलाया है । ५. आदिपुराणकार जिनसेन ने सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को अपने से उत्कृष्ट कवि निरूपित करते हुए मिथ्यावादियों के मतों का निरसन करनेवाला कहा है। ६. वीरसेन स्वामी ने 'धवला' में और उनके शिष्य जिनसेन ने 'जयधवला' में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र को अपना मान्य ग्रन्थ कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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